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________________ 3/26 75. क्वचिद्र्याप्तिकाले साध्यं धर्मो नित्यत्वादिस्तेनैव हेतोर्व्याप्तिसम्भवात् । प्रयोगकाले तु तेन साध्यधर्मेण विशिष्टो धर्मी साध्यमभिधीयते, प्रतिनियतसाध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टत्वात् साध्यव्यपदेशाविरोधः । अस्यैव पर्यायमाह पक्ष इति यावत् ||26|| 76. ननु च कथं धर्मी पक्षो धर्मधर्मिसमुदायस्य तत्त्वात् तन्नः साध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टस्य पक्षाभिधाने दोषाभावात् । साध्यं धर्मः क्वचित् तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥25॥ सूत्रार्थ कहीं धर्म को साध्य बनाते हैं कहीं धर्म विशिष्ट धर्मी को साध्य बनाते हैं। 75. कहीं पर अर्थात् व्याप्तिकाल में (जहाँ जहाँ साधन होता है वहाँ वहाँ साध्य अवश्य होता है इत्यादि रूप से साध्य साधन का अविनाभाव दिखलाते समय ) नित्यत्वादि धर्म ही साध्य होता है, क्योंकि उसके साथ ही हेतु की व्याप्ति होना सम्भव है। प्रयोगकाल में (अनुमानप्रयोग करते समय) तो उस साध्य धर्म से युक्त धर्मी को साध्य बनाया जाता है, क्योंकि धर्मी प्रतिनियत साध्य धर्म के विशेषण द्वारा विशिष्ट होने के कारण उसको सिद्ध करना इष्ट होता है अतः साध्य व्यपदेश का उसमें अविरोध है। धर्मी का नामान्तर कहते हैं पक्ष इति यावत् ॥26॥ सूत्रार्थ - धर्मी का दूसरा नाम पक्ष भी है। 76. शंका- धर्मी को पक्ष किस प्रकार कह सकते हैं? क्योंकि धर्म और धर्मी के समुदाय का नाम पक्ष है। समाधान - ऐसा नहीं, साध्य धर्म के विशेषण द्वारा युक्त होने के कारण धर्मी को सिद्ध करना इष्ट रहता है अतः उसको पक्ष कहने प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार :: 117
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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