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प्रतिवादिनस्तु प्रतिपाद्यत्वात्तस्य चाविज्ञातार्थस्वरूपत्वाविरोधात् तदपेक्षयैवेदं विशेषणम्। इष्टमिति तु साध्यविशेषणं वाद्यपेक्षया वादिनो हि यदिष्टं तदेव साध्यं न सर्वस्य । तदिष्टमप्यध्यक्षाद्यवाधितं साध्यं भवतीति प्रतिपत्तव्यं तत्रैव साधनसामर्थ्यात्।
तदेव समर्थयमानः प्रत्यायनाय हीत्याद्याह
प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव ||24||
इच्छया खलु विषयीकृतमिष्टमुच्यते। स्वाभिप्रेतार्थप्रतिपादनाय चेच्छा
वक्तुरेव ।
तस्य चोक्तप्रकारस्य साध्यस्य हेतोर्व्याप्तिप्रयोगकालापेक्षया साध्यमित्यादिना भेदं दर्शयति
साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥25॥
स्वरूप का प्रतिपादक होता है, यदि वादी को साध्य असिद्ध है तो वह उसका स्वरूप किस प्रकार प्रतिपादन करता है? क्योंकि जिसके लिये अर्थस्वरूप ज्ञात नहीं उसको प्रतिपादक माने तो अतिप्रसंग होगा। वास्तव में प्रतिवादी तो प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) होने के कारण अविज्ञात अर्थ स्वरूप वाला होता है. इसमें अविरोध है अतः उसकी अपेक्षा से ही
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असिद्ध विशेषण प्रयुक्त हुआ है तथा साध्य का इष्ट विशेषण वादी की अपेक्षा से है, क्योंकि वादी को जो इष्ट हो वही साध्य होता है सबका इष्ट साध्य नहीं होता। इस प्रकार साध्य इष्ट और अबाधित होता है ऐसा समझना चाहिए, ऐसे साध्य की सिद्धि के लिए ही साधन में सामर्थ्य होती है। आगे इसी का समर्थन करते हैं
प्रत्यायनाव हीच्छा वक्तुरेव ॥24॥
सूत्रार्थ विषय प्रतिपादन एवं समझाने की इच्छा वक्ता को ही हुआ करती है। अर्थात् अपने इष्ट तत्त्व के प्रतिपादन करने के लिए वक्ता को (वादी को) ही इच्छा होती है।
उक्त प्रकार के साध्य सम्बन्धी हेतु के साध्य में व्याप्तिकाल और प्रयोगकाल की अपेक्षा से भेद होता है ऐसा बतलाते हैं
116 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः