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________________ 3/23 73. ननु यथा शब्दे कथञ्चिदनित्यत्वं जैनस्येष्टं तथा सर्वथाऽनित्यत्वमाकाशगुणत्वं चान्यस्येति तदपि साध्यमनुषज्यते । न च वादिनो यदिष्टं तदेव साध्यमित्यभिधातव्यम् सामान्याभिधायित्वेनेष्टस्यान्यत्राप्यविशेषात्। इत्याशङ्कापनोदार्थमाह न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥23॥ 74. विशेषणम्। न हि सर्व सर्वापेक्षया विशेषणं प्रतिनियतत्वाद्विशेषणविशेष्यभावस्य । तत्रासिद्धमिति साध्यविशेषणं प्रतिवाद्यपेक्षया न पुनर्वाद्यपेक्षया, तस्यार्थस्वरूपप्रतिपादकत्वात् न चाविज्ञातार्थस्वरूपः प्रतिपादको नामातिप्रसङ्गात्। कहते हैं जैसे- मेरी माता बंध्या है। जो लोक व्यवहार में बाधित हो उसे लोक बाधित साध्य कहते हैं, जैसे मनुष्य का कपाल शुचि है। इस प्रकार के अनिष्ट एवं प्रत्यक्षादि से बाधित वस्तु को साध्यपना न हो इस कारण से इष्ट और अबाधित विशेषण साध्यपद में प्रयुक्त हैं। 73. शंका- जिस प्रकार जैन को शब्द में कथंचित् अनित्यपना मानना इष्ट है उसी प्रकार अन्य वैशेषिक आदि परवादियों को उसमें सर्वथा अनित्यत्व और आकाशगुणत्व मानना इष्ट है अतः उसको साध्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है ऐसा तो कह नहीं सकते कि जो वादी को इष्ट हो वही साध्य बने, क्योंकि सामान्यरूप से कहा गया इष्ट विशेषण अन्यत्र ( प्रतिवादी में) भी सम्भव है। यहाँ कोई विशेषता नहीं है? समाधान- अब इसी शंका का परिहार करते हुए आचार्य माणिक्यनंदी सूत्र कहते हैं न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥23॥ सूत्रार्थ - जिस तरह असिद्ध विशेषण प्रतिवादी के लिए प्रयुक्त हुआ है उस तरह इष्ट विशेषण प्रतिवादी के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। 74. विशेष्यविशेषणभाव प्रतिनियत होता है अतः सभी के लिये सब विशेषण लागू नहीं होते । साध्य का असिद्ध विशेषण तो प्रतिवादी की अपेक्षा से है न कि वादी की अपेक्षा से क्योंकि वादी तो साध्य के प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार 115
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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