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इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम् ॥20॥
संशयादिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं सिद्धमुच्यते, तद्विपरीतमसिद्धम्। तच्च
सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम् ॥21॥
71. किमयं स्थाणुः पुरुषो वेति चलिप्रतिपत्तिविषयभूतो ह्यर्थः सन्दिग्धोभिधीयते। शुक्तिकाशकले रजताध्यवसायलक्षणविपर्यासगोचरस्तु विपर्यस्त:। गृहीतोऽगृहीतोपि वार्थो यथावदनिश्चितस्वरूपोऽव्युत्पन्नः।
समाधान- अब इसी साध्य का लक्षण कहते हैंइष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् ॥20॥
सूत्रार्थ-इष्ट अबाधित और असिद्धभूत पदार्थ को "साध्य" कहते हैं।
जो पदार्थ वादी को अभिप्रेत हो उसे इष्ट कहते हैं। किसी प्रमाण से बाधित नहीं होना अबाधित है और अप्रतिपन्नभूत पदार्थ को असिद्ध कहते हैं।
संशयादि का व्यवच्छेद करके पदार्थ का स्वरूप ज्ञात होना सिद्ध कहलाता है और इससे विपरीत असिद्ध है।
सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम् ॥21॥
सूत्रार्थ- संदिग्ध, विपरीत एवं अव्युत्पन्न पदार्थ साध्यरूप हो सके इस हेतु से साध्य का लक्षण करते समय “असिद्ध पद का" ग्रहण किया है।
71. "यह स्थाणु है या पुरुष है" इस प्रकार चलित प्रतिपत्ति के विषय भूत अर्थ को “संदिग्ध" कहते हैं। सीप के टुकड़े में चाँदी का निश्चय होना रूप विपर्यास के गोचरभूत पदार्थ को “विपर्यस्त" कहते हैं। गृहीत अथवा अगृहीत पदार्थ जब यथावत् निर्णीत नहीं होता तब उसे "अव्युत्पन्न" कहते हैं। इन तीन प्रकार के पदार्थों की सिद्धि करने में
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 113