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________________ 3/15 अनयोर्विरोधात् साध्यसद्भावे एव हि हेतोर्धर्मिणि सद्भाववस्त्रैरूप्यम्, तदभावे एव च तत्र तत्सम्भवो बाधा, भावाभावयोश्चैकत्रैकस्य विरोधः । है तो उसके विषय में (साध्य में) बाधा आना सम्भव नहीं क्योंकि प्रमाण प्रसिद्ध और बाधापन ये दोनों परस्पर विरुद्ध है साध्य के सद्भाव में ही हेतु का पक्ष में होना त्रैरूप्य कहलाता है, इस प्रकार के हेतु के रहते हुए उसके विषय में बाधा किस प्रकार सम्भव है? बाधा तो तब सम्भव है जब हेतु साध्य के अभाव में धर्मों में होता । भाव और अभाव का एकत्र रहना विरुद्ध है। कहने का तात्पर्य है यह है कि - बौद्धाभिमत हेतु के त्रैरूप्य लक्षण को जैन द्वारा बाधित किये जाने पर योग कहता है कि त्रैरूप्य लक्षण का निरसन तो ठीक ही हुआ क्योंकि उसमें अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व ये दो लक्षण समाविष्ट नहीं हुए। किन्तु हमारा पञ्चलक्षण ठीक है। आचार्य प्रभाचन्द्र इन पाँच रूप्य लक्षण का भी निरसन करते हुए कह रहे हैं कि पाँच रुप्य रहते हुए भी यदि साध्याविनाभावित्व नहीं है तो वह हेतु साध्य का गमक नहीं हो सकता, तथा त्रैरूप्य लक्षण यदि प्रमाण से सिद्ध है अर्थात् उस त्रैरूप्य के साथ साध्याविनाभावित्व है तो वह हेतु साध्य का गमक क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। जब हेतु का पक्ष में सद्भाव है तब उसमें पक्षधर्मत्व है ही, तथा हेतु केवल साध्य रहते हुए ही पक्ष में रहता है तो उसका अन्वय भी प्रसिद्ध है एवं साध्य सद्भाव में ही पक्ष में रहने के कारण उसका विपक्ष में असत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार का प्रमाण प्रसिद्ध त्रैरूप्य अन्यथानुपपन्नरूप होने के कारण अनिराकृत है। जिस हेतु का साध्य प्रमाण से बाधित है उसे बाधित विषय कहते हैं जब हेतु का सारा स्वरूप प्रमाण से सिद्ध हुआ तब उसमें किस प्रकार की बाधा? एक ही अनुमान स्थित हेतु के बाधा सम्भव और बाधा अभाव [ भाव और अभाव] मानना तो विरुद्ध है। 110 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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