SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3/15 66. एवमेकेनान्यतरानुपलब्धेरनित्यत्वसिद्धौ साधकत्वेनोपन्यासे सति द्वितीयः प्राह-यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं प्रसाध्यते तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यस्त्वऽन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात्। तथा हि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरात्मादिवत्, यत्पुनर्न नित्यं तन्नानुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकम् यथा घटादि 67. इत्यप्यविचारितरमणीयम्: साध्याविनाभावित्वव्यतिरेकेणापरस्याबाधितविषयत्वादेरसम्भवात् तदेव प्रधानं हेतोर्लक्षणमस्तु किं पञ्चरूपप्रकल्पनया? 68. न च प्रमाणप्रसिद्धत्रैरूप्यस्य हेतोर्विषये बाधा सम्भवति; धर्म अनुपलब्ध नहीं रहता (अर्थात् उपलब्ध ही होता है) जैसे आत्मादि पदार्थ। 66. इस प्रकार एक किसी वादी द्वारा अन्यतर अनुपलब्धि-नित्य अनित्य में से एक की अनुपलब्धि हेतु से अनित्यत्व की सिद्धि में साधन उपस्थित करने पर दूसरा प्रतिवादी कहता है यदि इस प्रकार से अनित्यत्व सिद्ध किया जाता है तो नित्यत्व की सिद्धि भी हो क्योंकि उसमें भी अन्यतर अनुपलब्धि हेतु का सद्भाव है, यथा- शब्द नित्य है क्योंकि उसमें अनित्य धर्म की अनुपलब्धि है, जैसे आत्मादि में अनित्य धर्म की अनुपलब्धि देखी जाती है, जो नित्य नहीं है उसका अनित्य अनुपलब्ध नहीं रहता, जैसे घटादि का अनित्य धर्म अनुपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार हेतु में पाँच रूप्य-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व होना आवश्यक है अन्यथा उपर्युक्त रीति से वह हेतु बाधित विषयत्व आदि दोषों का भागी हो जाता है। 67. जैन- यह कथन अविचारित रमणीय है, साध्याविनाभावित्व के बिना अन्य अबाधित विषयत्वादि हेतु के लक्षण असम्भव ही है अतः वही हेतु का प्रधान लक्षण होना चाहिये। पांचरूप्य लक्षण से क्या प्रयोजन? 68. दूसरी बात यह है कि हेतु का त्रैरूप्य यदि प्रमाण से सिद्ध प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 109
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy