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________________ 3/15 प्रसिद्धः, स्वयमसिद्धस्यान्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयासम्भवाद् विरुद्धानैकान्तिकवत्। हेतोस्त्रैरूप्यनिरासः 60. किञ्च, त्रैरूप्यमात्रं हेतोर्लक्षणम्, विशिष्टं वा त्रैरूप्यम्? तत्राद्यविकल्पे धूमवत्त्वादिवद्वक्तृत्वादावप्यस्य सम्भवात्कथं तल्लक्षणत्वम्? न खलु 'बुद्धोऽसर्वज्ञो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवत्' इत्यत्र हेतोः पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयसद्भावे परैर्गमकत्वमिष्यतेऽन्यथानुपपन्नत्वविरहात्। जैसे अग्नि का उष्णता स्वभाव असाधारण होने से उसका वह लक्षण व्यभिचार दोष रहित है। बौद्ध का पूर्वोक्त त्रैरूप्य लक्षण असाधारण स्वभावरूप नहीं है क्योंकि वह हेतु और हेत्वाभास दोनों में पाया जाता है जैसे कि यौग का पंचरूपता लक्षण उभयत्र पाया जाता है। हेतु के असिद्धादि दोषों का परिहार तो अन्यथानुपपत्ति के नियम का निश्चितपने से रहना रूप लक्षण से ही हो जाता है, जो हेतु स्वयं असिद्ध है उसमें अन्यथानुपपत्ति नियम का निश्चय [साध्य के बिना नियम से नहीं होने का निश्चय] असम्भव है, जैसे कि विरुद्ध एवं अनैकान्तिक रूप हेतुओं में अन्यथानुपपत्ति नियम का निश्चय होना असम्भव होता है। हेतु त्रैरूप्यनिरास 60. हम जानना चाहेंगे कि केवल त्रैरूप्य को हेतु का लक्षण मानना बौद्ध को इष्ट है अथवा विशिष्ट त्रैरूप्य को मानना इष्ट है? प्रथम विकल्प-धूमत्व आदि हेतुओं के समान वक्तृत्वादि हेतु में भी त्रैरूप्य सामान्य पाया जाना सम्भव है अतः वह किस प्रकार हेतु का लक्षण बन सकता है? बुद्धदेव असर्वज्ञ हैं, क्योंकि वे बोलते हैं जैसे रथ्यापुरुष [पागल] बोलता है। इस अनुमान के वक्तृत्व [बोलना] हेतु में पक्ष धर्मत्व आदि त्रैरूप्य का सद्भाव होते हुए इसको आपने साध्य का गमक नहीं माना है, इसका कारण यही है कि उक्त हेतु में अन्यथानुपपत्ति का अभाव है। अभिप्राय यह हुआ कि त्रैरूप्य लक्षण के रहते हुए भी वह हेतु साध्य को सिद्ध नहीं कर पाता अतः वह लक्षण असत् है। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 105
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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