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________________ 3/15 लक्षणं निश्चीयते सपक्ष एव सत्त्वं तु विरुद्धत्वव्यवच्छेदार्थम् । विपक्षे चासत्त्वमेव अनैकान्तिकत्वव्यवच्छित्तये। तदनिश्चये साधनस्यासिद्धत्वादिदोषत्रयपरिहारासम्भवात्। उक्तञ्च हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥ इत्याशङ्कयाह साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥15॥ 59. असाधारणो हि स्वभावो भावस्य लक्षणमव्यभिचारादग्नेरौष्ण्यवत्। न च त्रैरूप्यस्यासाधारणता; हेतौ तदाभासे च तत्सम्भवात्पञ्चरूपत्वादिवत्। असिद्धत्वादिदोषपरिहारश्चास्य अन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयलक्षणत्वादेव धर्मत्व आदि तीन रूप संयुक्त होता है। पक्षधर्मत्व रूप हेतु का विशेषण उसके असिद्धत्व दोष का व्यवच्छेद करने के लिए प्रयुक्त किया है, सपक्ष में ही सत्त्व होना रूप लक्षण विरुद्धपने का व्यवच्छेद करने के लिये है, और विपक्ष में असत्त्व होना रूप लक्षण अनैकान्तिक दोष के परिहार के लिये है। यदि इन पक्ष धर्मादि का हेतु में रहना निश्चित न हो तो असिद्धादि तीन दोषों का परिहार होना असम्भव है। कहा भी हैहेतु के त्रैरूप्य का [ पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति] निर्णय इसलिये करते हैं कि उससे असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक दोष नहीं आते। बौद्ध की इस शंका का परिहार करते हुए हेतु के सही लक्षण का वर्णन करते हैं साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥15॥ सूत्रार्थ - साध्य के साथ अविनाभावरूप से रहना जिसका निश्चित है उसको हेतु कहते हैं। 59. वस्तु का जो असाधारण स्वभाव होता है वह उसका लक्षण होता है, क्योंकि उस लक्षण में किसी प्रकार का व्यभिचार नहीं आता, प्रमाणवार्तिक 1/16 10. 104 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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