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स्वभावेप्यविनाभावो भावमात्रानुबन्धिनि। तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः॥'
53. व्याप्तिप्रतिपत्तावपि तन्निश्चयकालोपलब्धेनैव व्यापकेन व्याप्यस्य व्याप्तिः स्यात् तस्यैव तथा निश्चयात्, न तादृशस्य। तादृशस्यापि साध्यव्याप्तत्वग्रहणे तद्ग्राहिणो विकल्पस्यागृहीतग्राहित्वं कथं न स्यात्? यत्तु प्रत्यक्षेण क्वचित्प्रदेशे साध्यव्याप्तत्वेन प्रतिपन्नं ततस्तस्यानुमाने विशेषतो दृष्टानुमानं स्यात्, अन्यदेशादिस्थसाध्येनास्याव्याप्तेः।
स्वभाव हेतु की भी यही बात है। भाव मात्र का अनुकरण करने वाले स्वभाव में अविनाभाव होता है अर्थात् स्वभाव और स्वभाववान में अभेद होने के कारण स्वभाव के अभाव में स्वभाववान का अभाव हो जाता है ॥2॥
53. किन्तु शंकाकार का उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है। प्रत्यक्षादि से व्याप्ति का बोध होने पर भी केवल उस प्रत्यक्ष के काल में उपलब्ध व्यापक के साथ ही व्याप्य की व्याप्ति सिद्ध हो सकती है। उसी का उस तरह से निश्चय हुआ है, तत् सदृश अन्य व्याप्य के साथ तो व्याप्ति का निश्चय नहीं हो सकता, यदि तत् सदृश अन्य व्याप्य की भी व्याप्ति गृहीत होती है- ऐसा माना जाय तो उस व्याप्ति ग्राहक विकल्प रूप ज्ञान को अग्रहीत-ग्राहीपना कैसे नहीं होगा? यदि किसी प्रदेश विशेष में प्रत्यक्ष द्वारा साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति जानी जाती है और उससे अनुमान प्रमाण प्रवृत्त होता है उस ज्ञान को विशेष तो दृष्ट अनुमान कहना होगा न कि तर्क प्रमाण, क्योंकि उक्त ज्ञान द्वारा अन्य देश आदि में स्थित साध्य के साथ इस हेतु की व्याप्ति सिद्ध नहीं होती।
54. शंका- अन्य देशादि के साध्य में उस प्रकार के व्यापक से व्याप्य की व्याप्ति तो परिशेष्य रूप ज्ञान द्वारा हो जाया करती है?
समाधान- अच्छा तो बताइये पारिशेष्य ज्ञान किसे कहते हैं प्रत्यक्ष को या अनुमान को? प्रत्यक्ष को तो कह नहीं सकते, क्योंकि
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प्रमाणवार्तिक 1/40
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 101