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________________ 3/6-10 न; स्मरणप्रत्यक्षोल्लेखव्यतिरेकेण तदनभ्युपगमात्। तथा च कुतस्तन्निमित्ता रागादयो यतः संसारः स्यात्? 30. ननु पूर्वापरपर्याययोरेकत्वग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा, तस्य चासम्भवात् कथमियमविसंवादिनी यतः प्रमाणं स्यात्? प्रत्यक्षेण हि तृद्यद्रूपयोः प्रतीतिः स्वकालनियतार्थविषयत्वात्तस्य; 31. इत्यपि मनोरथमात्रम्; सर्वथा क्षणिकत्वस्याग्रे निराकरिष्यमाणत्वात्। प्रत्यक्षेणाऽतृद्यद्रूपतयार्थप्रतीतेश्चानुभवात् कथं विसंवाद- कत्वं तस्याः? ततः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञा स्वगृहीतार्थाविसंवादित्वात् प्रत्यक्षादिवत्। है, क्योंकि अपनत्व दृष्टि का होना ही असम्भव है, "सोहम्" इस प्रकार से अपनत्व की दृष्टि होना सम्भव है यदि ऐसा कहो तो वह भी ठीक नहीं, क्योंकि स्मरण और प्रत्यक्ष के उल्लेख बिना “सोहम्" इस प्रकार की अपनत्व की दृष्टि का होना स्वीकार नहीं किया है, इस तरह अपनत्व दृष्टि की असिद्धि होने पर उसके निमित्त से होने वाले रागद्वेष भी कैसे उत्पन्न हो सकेंगे जिससे संसार अवस्था सिद्ध हो जाये? अभिप्राय यह है कि प्रत्यभिज्ञान के अभाव में रागद्वेष उत्पन्न होना इत्यादि सिद्ध नहीं होता। 30. बौद्ध- पूर्व और उत्तर पर्यायों में एकत्व को ग्रहण करने वाला प्रत्यभिज्ञान है किन्तु उस एकत्व का होना असम्भव होने से यह ज्ञान किस प्रकार अविसंवादक होगा जिससे उसको प्रमाण माना जाय। प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा नष्ट होते हुए स्वरूपों की ही प्रतीति होती है, क्योंकि स्वकाल में नियत रहने वाला पदार्थ उसका विषय है? 31. जैन- यह कथन भी ठीक नहीं है, सर्वथा क्षणिकवाद का हम आगे खण्डन करने वाले हैं। आपने कहा कि प्रत्यक्ष से वस्तुओं का नष्ट होता हुआ रूप ही प्रतीत होता है किन्तु यह बात असत्य है प्रत्यक्ष द्वारा तो अन्वय रूप से पदार्थ की प्रतीति होती है, अतः प्रत्यभिज्ञान के विसंवादकपना कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता, इसलिये निश्चित हुआ कि प्रत्यभिज्ञान प्रमाणभूत है, क्योंकि वह अपने गृहीत प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 89
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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