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27. न चाध्यक्षस्मरणे एव समारोपः; तेनानयोर्व्यवच्छेदेऽनुमानस्यानुत्पत्तिरेव स्यात् तत्पवूकत्वात्तस्य। कथं चास्याः प्रतिक्षेपेऽभ्यासेतरावस्थायां प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यप्रसिद्धिः? प्रत्यभिज्ञाया अभावे हि 'यदृष्टं यश्चानुमितं तदेव प्राप्तम्' इत्येकत्वाध्यवसायाभावेनानयोरविसंवादासम्भवात्। तथा च "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्" इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमयुक्तम्।
28. अन्यद् दृष्टमनुमितं वा प्राप्तं चान्यदित्येकत्वाध्यवसायाभावेप्यविसंवादे प्रामाण्ये चानयोरभ्युपगम्यमाने मरीचिकाचक्रे जलज्ञानस्यापि तत्प्रसङ्गः।
29. न चैवंवादिनो नैरात्म्यभावनाभ्यासो युक्तः फलाभावात्। न चात्मदृष्टिनिवृत्तिः फलम्; तस्या एवासम्भवात्। 'सोहम्' इत्यस्तीति चेत्;
27. प्रत्यक्ष और स्मरण ही समारोप है ऐसा कहना भी शक्य नहीं, क्योंकि यदि इन दोनों का समारोप द्वारा व्यवच्छेद होगा तो अनुमान उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षादि पूर्वक होता है। दूसरी बात यह है कि प्रत्यभिज्ञान का निरसन करेंगे तो अनभ्यास दशा में प्रत्यक्ष
और अनुमान की प्रमाणता किस प्रकार सिद्ध होगी, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के अभाव में जो देखा था अथवा जिसका अनुमान हुआ था वही पदार्थ प्राप्त हुआ है ऐसा एकत्व का निश्चय नहीं होने से प्रत्यक्ष और अनुमान में अविसंवाद सिद्ध होना असम्भव है, अतः “अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है" इस प्रकार आप बौद्ध के प्रमाण का लक्षण अयुक्त सिद्ध होता है।
28. बौद्ध के यहाँ प्रत्यक्ष द्वारा दृष्ट एवं अनुमान द्वारा अनुमित हुआ पदार्थ अन्य है और प्राप्त होने वाला पदार्थ अन्य है, उस दृष्ट और प्राप्त पदार्थ में एकत्व अध्यवसाय के अभाव में भी प्रत्यक्ष और अनुमान का अविसंवादपना एवं प्रामाण्यपना स्वीकार किया जाय तो मरीचिका में होने वाले जल के ज्ञान को भी अविसंवादक एवं प्रामाण्य स्वीकार करना होगा।
29. प्रत्यभिज्ञान का निराकरण करने वाले बौद्ध के यहाँ नैरात्म्य भावना का अभ्यास करना भी युक्त नहीं है, क्योंकि उसका कोई फल नहीं है। अपनत्व दृष्टि दूर होना उसका फल है ऐसा कहना भी असत्
88:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः