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3/6-10 स्मरणमेवातीतवर्तमानविवर्त्तवर्तिद्रव्यं सङ्कलयितुमलं तस्यातीतविवर्त्तमात्रगोचरत्वात्। नापि दर्शनम्। तस्य वर्तमानमात्रपर्यायविषयत्वात्। तदुभयसंस्कारजनितं कल्पनाज्ञानं तत्सङ्कलयतीति कल्पने तदेव प्रत्यभिज्ञानं सिद्धम्।
25. प्रत्यभिज्ञानानभ्युपगमे च 'यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकम्' इत्याद्यनुमानवैयर्थ्यम्। तद्ध्येकत्वप्रतीतिनिरासार्थम् न पुनः क्षणक्षयप्रसिद्धर्थं तस्याध्यक्षसिद्धत्वेनाभ्युपगमात्। समारोपनिषेधार्थं तत्;
26. इत्यप्यपेशलम् : सोयमित्येकत्वप्रतीतिमन्तरेण समारोपस्याप्यसम्भवात्। तदभ्युपगमे च 'अयं सः इत्यध्यक्षस्मरणव्यतिरेकेण नापरमेकत्वज्ञानम्' इत्यस्य विरोधः। वर्तमान पर्यायों में रहने वाले द्रव्य के जोड़ रूप विषय को जानने में समर्थ नहीं है, वह तो केवल अतीत पर्याय को जान सकता है। दर्शनरूप प्रत्यक्ष भी इस विषय को ग्रहण नहीं कर पाता, क्योंकि वह केवल वर्तमान पर्याय को जानता है। यदि अब आप यह कहो कि अतीत और वर्तमान पर्याय के संस्कार से उत्पन्न हुआ कल्पना ज्ञान उन दोनों पर्यायों का संकलन करता है। तो वही ज्ञान प्रत्यभिज्ञान रूप सिद्ध होता है।
25. तथा प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार नहीं करे तो "जो सत् है वह सब क्षणिक है" इत्यादि अनुमान व्यर्थ हो जाता है।
बौद्ध- अनुमान प्रमाण एकत्व का निरसन करने के लिये दिया जाता है, क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये नहीं, क्योंकि क्षणिकत्व तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो जाता है। उस प्रत्यक्ष में आये हुए समारोप का निषेध करने के लिए अनुमान की आवश्यकता होती है।
26. जैन- यह कथन शोभनीय नहीं है। "वह यह है" इस प्रकार की एकत्व की प्रतीति हुए बिना समारोप आना भी सम्भव नहीं है अतः एकत्व की प्रतीति को स्वीकार करना होगा और उसको स्वीकार करें तो आपका निम्न कथन विरोध को प्राप्त होगा कि "यह वह है" इस तरह के ज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मरण को छोड़कर अन्य कोई एकत्व नाम का ज्ञान नहीं है।
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 87