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________________ 3/6-10 नीलाद्यनेकाकाराक्रान्तं चैकज्ञानमभ्युपगच्छतः स एवायम्' इत्याकारद्वयाक्रान्तैकज्ञाने को विद्वेषः? 32. ननु स एवायमित्याकारद्वयं किं परस्परानुप्रवेशेन प्रतिभासते, अननुप्रवेशेन वा? प्रथमपक्षेऽन्यतराकारस्यैव प्रतिभासः स्यात्। द्वितीयपक्षे तु परस्परविविक्तप्रतिभासद्वयप्रसङ्गः। अथ प्रतिभासद्वयमेकाधिकरणमित्युच्यते; न; एकाधिकरणत्वासिद्धेः। न खलु परोक्षापरोक्षरूपौ प्रतिभासावेकमधिकरणं बिभ्राते सर्वसविंदामेकाधिकरणत्वप्रसङ्गात्। 33. इत्यप्यसारम् तदाकारयोः कथञ्चित्परस्परानुप्रवेशेनात्माधिकरणतयात्मन्येवानुभवात्। कथं चैवंवादिनश्चित्रज्ञानसिद्धिः? नीलादिप्रतिभासानां विषय में अविसंवादक है, जैसे प्रत्यक्षादि अविसंवादक है। आप बौद्ध भी नीलादि अनेक आकारों से व्याप्त ऐसे एक ज्ञान को स्वीकार करते हैं तो "वही यह है" इस प्रकार के दो आकारों से व्याप्त ज्ञान को एक मानने में कौन सा विद्वेष है? 32. बौद्ध- "वही यह है" ऐसे दो आकार परस्पर में मिले हुए प्रतिभासित होते हैं या बिना मिले प्रतिभासित होते हैं? प्रथम विकल्प कहो तो दो में से कोई एक आकार ही प्रतीत हो सकेगा क्योंकि दोनों परस्पर में मिल चुके हैं। दूसरे पक्ष में परस्पर से सर्वथा पृथक् दो प्रतिभास सिद्ध होंगे। कोई कहे कि दो प्रतिभासों का अधिकरण एक है अतः एकत्व सिद्ध होगा? सो यह कथन भी ठीक नहीं, एकाधिकरणत्व ही असिद्ध है क्योंकि परोक्ष और अपरोक्ष रूप दो प्रतिभास यदि एक अधिकरण को धारण करेंगे तो सभी ज्ञान में एक अधिकरणपना सिद्ध होगा? 33. जैन- यह कथन भी असार है। पूर्वापर दो आकारों का कथंचित् परस्परानुप्रवेश द्वारा आत्मा अधिकरण रूप से अपने में ही प्रतीत होता है, तथा इस प्रकार एकाधिकरणत्व का निषेध करने वाले बौद्ध के यहाँ चित्र ज्ञान की सिद्धि किस प्रकार होगी? क्योंकि नील पीत आदि प्रतिभासों का परस्पर में प्रवेश होने पर सभी आकारों को एक रूप हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है अत: उनमें चित्रता किससे आयेगी? 90:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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