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________________ 3/5 साक्षात्कारित्वाभावः स्यात्। ___19. देशकालेत्याद्यप्यक्तमुक्तम्; यतो देशादिभेदेनाप्यध्यक्षं चक्षुः सम्बद्धमेवार्थं प्रकाशयत्प्रतीयते। न च प्रत्यभिज्ञा तं प्रकाशयति पूर्वोत्तरविवर्त्तवच॑कत्व विषयत्वात्तस्याः। वर्तमानश्चायं चक्षुः सम्बद्धः प्रसिद्धः। 20. यदप्युच्यते-स्मरतः पूर्वदृष्टार्थानुसन्धानादुत्पद्यमाना मतिश्चक्षुःसम्बद्धत्वे प्रत्यक्षमिति; तदप्यसारम्; न हीन्द्रियमतिः स्मृतिविषयपूर्वरूपग्राहिणी, तत्कथं सा तत्सन्धानमात्मसात्कुर्यात्? पूर्वदृष्टसन्धानं हि तत्प्रतिभासनम्, तत्सम्भवे चेन्द्रियमतेः परोक्षार्थग्राहित्वात् परिस्फुटप्रतिभासता न स्यात्। उत्पन्न करती है। इस शंका के समाधान में जैन का कहना है कि- यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियज प्रत्यक्ष को स्मृति की अपेक्षा नहीं होती है, यदि प्रत्यक्ष प्रमाण को स्मृति सापेक्ष मानते हैं तो उसमें अपूर्वार्थ के साक्षात्कारीपने का अभाव हो जायेगा। 19. मीमांसक ने कहा कि देशकाल आदि के निमित्त से ज्ञान में भेद होता है सो यह कथन ठीक नहीं। देश आदि भेद होते हुए भी चक्षु से सम्बद्ध हुए वस्तु को ही प्रत्यक्ष प्रमाण प्रकाशित करता हुआ प्रतीत होता है। किन्तु प्रत्यभिज्ञान उसको प्रकाशित नहीं करता, क्योंकि पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाला एकत्व उसका विषय है। प्रत्यक्ष का विषय चक्षु से सम्बद्ध वर्तमान रूप होता है यह प्रसिद्ध ही है। 20. मीमांसक के यहाँ कहा जाता है कि स्मरण करते हुए पुरुष के पहले देखे हुए पदार्थ के अनुसंधान से उत्पद्यमान ज्ञान चक्षु से सम्बद्ध होने पर प्रत्यक्ष कहा जाता है, अतः उनका यह कथन भी असार है; इन्द्रिय ज्ञान स्मृति के विषयभूत स्वस्वरूप का ग्राहक नहीं होता है अतः वह किस प्रकार उस अनुसन्धान को आत्मसात् करेगा? पूर्व में देखे हुए पदार्थ का अनुसंधान होना उसका प्रतिभासन कहलाता है, उसके होने पर तो इन्द्रियज्ञान परोक्षार्थग्राही हो जाने से उसमें परिस्फुट प्रतिभासता नहीं हो सकेगी। 84:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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