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प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः। तदुक्तम्
गृहीतमपि गोत्वादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि। तथापि व्यतिरेकेण पूर्वबोधात्प्रतीयते॥1॥ देशकालादिभेदेन तत्रास्त्यवसरो मितेः। यः पूर्वमवगतोंशः स न नाम प्रतीयते॥2॥ इदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम्।
17. तदप्यसमीचीनम्; प्रत्यभिज्ञानेऽक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानस्यासिद्धेः, अन्यथा प्रथमव्यक्तिदर्शनकालेप्यस्योत्पत्तिः स्यात्।
___18. पुनदर्शने पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधोत्पन्नस्मृतिसहायमिन्द्रिय तज्जनयति; इत्यप्यसाम्प्रतम्। प्रत्यक्षस्य स्मृतिनिरपेक्षत्वात्। तत्सापेक्षत्वेऽपूर्वार्थ
अवस्थाओं से युक्त सामान्य और द्रव्यादिक है, अतः इसमें अपूर्व विषयपना भी है। कहा भी है
यद्यपि यह प्रत्यभिज्ञान स्मृति के पीछे होता है तथा इसका गोत्वादि विषय भी गृहीत है तथापि यह पूर्व ज्ञान से भिन्न प्रतीत होता है।।1।।
क्योंकि विभिन्न देश काल आदि के निमित्त से उसमें भेद होता है, पहले जो अंश अवगत था वह अब प्रतीत नहीं हो रहा है।॥2॥
इस समय का अस्तित्व पूर्व ज्ञान द्वारा अवगत नहीं हुआ है। ___ 17. इस आपत्ति पर जैन का कहना है कि मीमांसक का यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान में इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक के अनुविधान की असिद्धि है, अन्यथा पहली बार व्यक्ति के देखते समय भी प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होती। किन्तु ऐसा होता नहीं है।
18. मीमांसक शंका करते हैं कि- प्रथम बार के दर्शन से संस्कार होता है उस संस्कार के प्रबोध से उत्पन्न हुई स्मृति जिसमें सहायक है ऐसी इन्द्रिय पुनः उस वस्तु के देखने पर प्रत्यभिज्ञान को मी. श्लो॰ सू० 4 श्लो. 232-234
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 83
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