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अहिंसा दर्शन जीवरक्षा हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है; अत: जीवरक्षामात्र भी अहिंसा का मापदण्ड नहीं है। जीव, मरें या न मरें, आत्मा में कर्मों का बन्धन, अध्यवसानादि भावों से ही होता है, यही परमार्थदृष्टि है -
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स॥
यही बात आचार्य अमृतचन्द्र ने अहिंसा के महान ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में भी है
यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्। पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु॥
अर्थात् जीव, कषायभाव से युक्त होने पर प्रथम स्वयं ही स्वयं का घात करता है, बाद में दूसरे जीवों की हिंसा हो अथवा न हो।
कर्म-बन्धन को ही हिंसा का सबसे बड़ा प्रमाण माना गया है। आत्मा में कर्मों का बन्धन मूलतः राग के निमित्त से होता है, अतः राग ही सबसे बड़ी हिंसा है। आत्मा में जितने अंशों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है, उतने अंशों में बन्धन नहीं है अर्थात् अहिंसा है और जितने अंशों में राग है, उतने अंशों में बन्धन होता है।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।
पण्डित आशाधरजी ने कहा भी है -
परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम्। हिंसा रागाधुदुद्भूतिरहिंसा तदनुद्भवः।
1.
समयसार, गाथा 262 श्लोक-47 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 212-214 अनगारधर्मामृत, 4/26