________________
पंचम अध्याय
69
व्यायामशाला में अथवा कुश्ती के स्थल पर जहाँ धूल या रेत होती है, वहाँ जाता है और व्यायाम करता है अथवा कुश्ती लड़ता है, तब उसके शरीर पर रेत चिपक जाती है। निश्चित ही उसके शरीर पर रेत चिपकने का मूलकारण, शरीर पर लगे तेल की चिकनाई है, न कि कुश्ती लड़ना आदि तथा बिना तेल लगाये सूखे बदन रेत पर कुश्ती लड़ने पर भी रेत, शरीर पर चिपकती नहीं है; स्वतः झर जाती है। उसी प्रकार रागी जीव, जब क्रिया करता है, तब उसे कर्मों का बन्धन जरूर होता है किन्तु ज्ञानी जीव, जब क्रिया करता है, तब उसे बन्धन नहीं होता अर्थात् उसके द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं होती।' जीवन-मरण सुख-दुःख कर्मों पर निर्भर
प्रत्येक संसारी जीव का जीना और मरना, उसके आयुकर्म से होता है। हम एक-दूसरे को अपनी आयु दे नहीं सकते और न ही छीन सकते हैं। अज्ञानी लोग ही ऐसा मानते हैं कि मैं मार सकता हूँ या फिर मैं जीवन दे सकता हूँ। ज्ञानी लोग मानते हैं कि प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मों के उदय से सुखी या दुःखी होते हैं। कोई किसी को सुखी या दुःखी नहीं करता है, ना ही कर सकता है क्योंकि हम एक-दूसरे के कर्म ले या दे नहीं सकते।
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहि। सो मूढ़ो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।'
जो मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ या परजीव, मुझे मारते हैं, वह जीव, मूढ़, मोही और अज्ञानी है वही हिंसक है और जो ऐसा नहीं मानता, वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, वही अहिंसक है।
भावों पर हिंसा-अहिंसा की निर्भरता
हिंसा में जीव का घात (वध) हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है, अतः जीव का वधमात्र हिंसा का मापदण्ड नहीं है। अहिंसा में 1. समयसार, गाथा 237 से 246 तक 2. समयसार, गाथा 248 से 258 तक 3. समयसार, गाथा-247