________________
पंचम अध्याय
__ अर्थात् जिनागम का यह उत्कृष्ट सार अपने चित्त में निश्चितरूप से अङ्कित करें कि राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति हिंसा है और उसकी अनुत्पत्ति अहिंसा है।
अत: यह निश्चित है कि हिंसा, जीव के भावों से सम्बन्धित है। भाव, अशुद्ध होंगे तो सबसे पहले स्वयं आत्मा ही दूषित होगी और यह सबसे बड़ी हिंसा है। अशुद्धभाव जब क्रिया में परिणमित होंगे तो दूसरों को दुःखी करना तथा प्राणों का हरण करना रूप बाह्य हिंसा प्रदर्शित होगी, जिसे द्रव्यहिंसा कहा जाता है। यदि यह न भी हो, तब भी हिंसा तो हो ही गयी, क्योंकि कर्मबन्ध भावों से ही होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के बीच समन्वय स्थापित करते हुए कहते हैं -
सूक्ष्माऽपि न खलु हिंसा, परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः। हिंसायतनिवृति:परिणामविशद्धये तदपि कार्या॥'
अर्थात् यद्यपि परवस्तु के कारण रञ्चमात्र भी हिंसा नहीं होती है; तथापि परिणामों की विशुद्धि के लिए, हिंसा के आयतन या स्थान बाह्य परिग्रहादि को भी छोड़ देना चाहिए।
अध्यात्म और अध्यात्माभास
अहिंसा की उक्त व्याख्या, अज्ञानी को स्वच्छन्द भी बना सकती है। क्योंकि इस सिद्धान्त से प्रत्येक मनुष्य हिंसा करता हुआ भी स्वयं को अहिंसक कहने का साहस कर सकेगा, उसके पास 'मेरी भावना तो शुद्ध है' - यह एक अमोघ साधन आ जाता है। वह इस आध्यात्मिक व्याख्या को कवच बनाकर अपने द्वारा की गयी बाह्य हिंसा को उचित और तर्क-संगत ठहराने का प्रयास करेगा, वह अपने पक्ष में निम्नलिखित कुतर्क भी दे सकता
है
1.
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 49