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तृतीय अध्याय
इस प्रकार जैनधर्म अपनी प्रत्येक क्रिया में अहिंसा की भावना को प्रधानता देता है। अहिंसक आचरण सम्बन्धी क्रियाएँ
जैनधर्म के अनुयायी अहिंसाभावना के अनुरूप दैनिक क्रियाओं में ऐसी अनेक क्रियाएँ करते हैं, जो उनकी शुद्ध अहिंसक जीवन शैली को प्रगट करती हैं। उन क्रियाओं में कुछ प्रमुख क्रियाओं का उल्लेख यहाँ आवश्यक है
1.शाकाहार -
आहार-शुद्धि पर जैनधर्म अत्यधिक बल देता है। जैनधर्म में माँसाहार का कड़ा निषेध है। अण्डा, माँस, शराब आदि पदार्थों का सेवन, किसी भी मनुष्य को नहीं करना चाहिए। 'म' से प्रारम्भ होने वाले तीन मकार 'मद्यमाँस-मधु' गृहस्थ श्रावकों को अनिवार्य रूप से त्यागने योग्य हैं।' जैनधर्म में शुद्ध शाकाहारी पदार्थों को भी उनकी कालावधि के बाद सेवन करने का निषेध है क्योंकि एक समय-सीमा के बाद उनमें भी सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं; उनका सेवन करने से हिंसा तो होती ही है, स्वास्थ्य भी खराब होता है।
जमीन के भीतर उत्पन्न होने वाले प्याज-लहसुन आदि जमीकन्द पदार्थों का सेवन भी नहीं करना चाहिए क्योंकि उनमें अनन्त सूक्ष्मजीव रहते हैं, उनकी हिंसा होती है और इनका सेवन तामसिकता को बढ़ाता है। बाजार में बनी वस्तुओं को भी अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि उनकी निर्माण-विधि शुद्ध स्वच्छ नहीं होती और मिलावट का भय बना रहता है। इन सभी नियमों का पालन जिससे जितना भी बन सके, अपनी-अपनी क्षमता और विवेक के अनुसार करना ही चाहिए। 2. पानी छानना -
जल, मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकता है। यदि मनुष्य अशुद्ध जल पिएगा तो उसका जीवन सङ्कट में आ जाएगा। जैनधर्म ने मनुष्यों से कहा कि 1. मद्यं मासं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन।
हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। -पु.सि.उ.61