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अहिंसा दर्शन इच्छाओं का संसार असीम है। यदि उसे सीमित न किया जाए तो मानव को दानव बनने में देर नहीं लगती। अत्यधिक परिग्रह का अर्थ होता है कि अन्याय करना। अन्याय व शोषण महाहिंसा है। जो शोषित होता है, वह भी हिंसक हो जाता है। ऐसी स्थिति में समाज और राष्ट्र की शान्ति भङ्ग होने में भी देर नहीं लगती।
परिग्रहपरिमाणव्रत को दूषित करने वाले पाँच दोष भी हैं -
1. अतिवाहन - अधिक लाभ की आकांक्षा में शक्ति से ज्यादा दौड़ना-भागना, दिन-रात आकुल-व्याकुल रहना और अपने अधीनस्थों से नियमविरुद्ध अधिक काम करवाना, अतिवाहन है।
2. अतिसंग्रह - अधिक लाभ की भावना से वस्तुओं का अधिक समय तक संग्रह करना, अतिसंग्रह है।
3. अतिविस्मय - स्वयं को अधिक लाभ होने पर अहङ्कार करना और दूसरों का अधिक लाभ होने पर विषाद करना, अतिविस्मय है।
4. अतिलोभ - मन के अनुकूल लाभ होने पर भी और अधिक लाभ की इच्छा करना, अतिलोभ है।
5. अतिभारवाहन - किस व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर उससे अधिक ब्याज आदि वसूल करना, अतिभारवाहन है। अधिक कमाने की इच्छा से पशुओं पर सामर्थ्य से ज्यादा भार लादना भी इसी में आता है।
उक्त क्रियाओं से यह व्रत दूषित होता है और समाज में भी असन्तुलन की स्थिति बनती है। इनसे व्यक्तिगत हिंसा के साथ-साथ सामाजिक अपराधों में भी बढ़ोतरी होती है।
उपर्युक्त पाँच व्रत, पाँच पाप के निवृत्तिस्वरूप हैं। ये पाप, दूसरों को दु:खी करने के साथ-साथ स्वयं पाप करने वाले को भी आकुलता, भय, शङ्का, तृष्णा आदि न जाने कितनी मानसिक पीड़ा पहुँचाते हैं। भविष्य में भी इनका फल दु:ख के रूप में प्राप्त होता है, अतः ये दुःखस्वरूप ही हैं। जो सुख-शान्ति चाहते हैं, उन्हें इन पापों से बचना चाहिए।