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तृतीय अध्याय
परिग्रह-परिमाणवत अर्थात् अपरिग्रहव्रत
सा
बाह्य पदार्थों को एकत्रित करने की भावना और उसमें आसक्ति ही परिग्रह कहलाता है। अपनी आवश्यकता के अनुसार पदार्थ का सञ्चय तथा उसमें अनासक्ति का भाव रखना, परिग्रह-परिमाणवत कहलाता है। परिग्रह अर्थात् पदार्थों में आसक्ति हिंसा है तथा पदार्थों के प्रति ममत्व या आसक्ति का त्याग, अहिंसा है। इस व्रत का दूसरा नाम 'इच्छा-परिमाणवत' भी है। यह सब श्रावकाचार के अन्तर्गत विधेय है।
जैनधर्म ने दो प्रकार के परिग्रह माने हैं - एक, अन्तरङ्ग परिग्रह और दूसरा, बहिरङ्ग परिग्रह। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद - यह चौदह प्रकार का अन्तरङ्ग परिग्रह है। दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि चेतना में उठने वाली विकार की सभी तरङ्गे अन्तरङ्ग परिग्रह हैं अर्थात् कामनाओं का ही दूसरा नाम है अन्तरङ्ग परिग्रह । यह आत्मा की सहज स्वाभाविक शान्ति में व्यवधान (बाधा) डालते हैं; अतः इन्हें हिंसा कहते हैं।'
बहिरङ्ग परिग्रह में खेत-मकान, सोना चांदी आदि रूप धन-सम्पत्ति, पशु-वाहन, नौकर-नौकरानी, कपड़े-बर्तन इत्यादि आते हैं। इन सभी परिग्रहों में अपनी शक्ति, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार सीमा बाँधकर उसके बाहर अनन्त पदार्थों का मन-वचन-काय से त्याग कर देना 'परिग्रहपरिमाणवत' कहलाता है, तथा इनका आवश्यकता से अधिक संग्रह अतिचार कहलाता है।
वास्तव में यदि जरा गहराई से देखें तो हम पाते हैं हिंसा और संग्रह में भेद नहीं है। ये दोनों एक ही वस्त्र के दो छोर हैं। एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। आप अनावश्यक संग्रह करें और हिंसा से बचना चाहें, यह कैसे संभव हो सकता है? एक बात हम सभी समझ लें-हिंसा का सूत्र है जितना संग्रह उतनी हिंसा। अहिंसा का सूत्र है- जितना असंग्रह उतनी अहिंसा। 1. मूच्छा परिग्रहः।-त.सू.7.17 2. क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः। -त.सू. 7.29