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अहिंसा दर्शन
पाँच व्रतों का स्वरूप
सूत्र
जैनधर्म का एक प्रसिद्ध सूत्र है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्" । यह जैनधर्म के प्रतीक चिह्न के साथ अङ्कित है । इस सूत्र का अर्थ है कि ‘जीवों में परस्पर उपकार अर्थात् निमित्तपना होता है'; वास्तव में कोई जीव किसी अन्य का भला बुरा कर नहीं सकता, क्योंकि सभी जीव अपने-अपने भले-बुरे कर्मों का ही फल भोगते हैं परन्तु व्यवहार से जीवधारियों में विशेषकर विवेकशील मानव का, यह पुनीत कर्तव्य है कि वह दूसरे जीवों की सहायता करे, उनकी रक्षा करें; उन्हें सताये नहीं और उन्हें दुःख पहुँचाने में भी निमित्त नहीं बने।
इसी पवित्र भावना को लक्ष्य में रखकर जैनधर्म में पाँच व्रतों का प्रतिपादन हुआ - ये पाँच अणुव्रत भी होते हैं और महाव्रत भी। इन पाँच व्रतों का आंशिक पालन, अणुव्रत कहलाता है; इसे गृहस्थ लोग पालन करते हैं तथा इन्हीं पाँच व्रतों का पूर्णरूप से निर्दोष पालन महाव्रत कहलाता है, जिसे मुनिराज पालन करते हैं। ये पाँच व्रत हैं.
1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य, 5. अपरिग्रह
इन पाँच व्रतों में अहिंसा ही प्रमुख है। यही साध्य है, शेष चारों इसी के साधक हैं? जिस प्रकार किसान फसल की रक्षा के लिए खेत के चारों तरफ बाड़ लगा देते हैं; उसी प्रकार सत्य, अचौर्य आदि सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए ही हैं। इन व्रतों की रक्षा और वृद्धि के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ तथा इन व्रतों को दूषित करने वाले पाँच-पाँच अतिचारों का विवेचन भी जैन शास्त्रों में वर्णित है ।
अहिंसाव्रत
हिंसा का त्याग करना, अहिंसाव्रत है। आंशिक रूप से इस व्रत का पालन करना, अहिंसा अणुव्रत कहलाता है तथा पूर्णरूप से पालन करना,
1. तत्त्वार्थसूत्र, 5/21
2.
तत्त्वार्थसूत्र 7/1
3.
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।। – पु. सि. उ. -42