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तृतीय अध्याय अहिंसा महाव्रत कहलाता है। 'अहिंसा अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। जो प्रत्यक्षतः कोई बड़े पाप प्रतीत नहीं होते, किन्तु जिनके करने से व्रतों में दोष लगता है, उन्हें अतिचार कहते हैं। अहिंसाव्रत के पाँच अतिचार हैं -
1. बन्धन
- किसी जीव को जबरदस्ती बाँध कर रखना, पिंजरे
आदि में बन्द करना, बन्धन कहलाता है।
2. पीड़न
- बेंत, चाबुक आदि से जीवों को मारना, कठोर वचनों
का प्रयोग कर उन्हें पीड़ा पहुँचाना, पीड़न कहलाता
3. छेदन - जानवरों के कान-नाक आदि अङ्गों को छेदना,
उसमें नकेल आदि लगाना, छेदन कहलाता है। 4. अतिभारारोपण - लोभ के कारण किसी जीव पर उसकी सामर्थ्य से
ज्यादा बोझ लाद देना, अतिभारारोपण कहलाता
5. अन्न-पान निरोध - अपने अधीन जीवों को भूख-प्यास आदि की बाधा
उत्पन्न करना, अन्न-पाननिरोध कहलाता है। अहिंसाव्रत के संवर्धन के लिए जैन शास्त्रों में पाँच भावनाओं की बात कही गयी है, वे पाँच भावनाएँ हैं -
1. मनोगुप्ति - मन को नियन्त्रित रखना तथा उसे विषय-वासनाओं
की ओर नहीं जाने देना, मनोगुप्ति कहलाती है। 1. वही, 7.2,
बन्धवधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः । वही 7/25 वही,7.14 गुप्तियों के तीन प्रकार हैं - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। कायगुप्ति का सीधा सम्बन्ध अहिंसा से है ही, अत: उसे तो अहिंसा की मूल परिभाषा में शामिल किया गया है, शेष मनोगुप्ति और वचनगुप्ति के परिपालन को भावनाओं के