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प्रथम अध्याय
यदि आत्मा या मन में हीनभाव जन्म ले रहे हैं तो समझ लें कि निश्चितरूप से हिंसा हो रही है और यदि आत्मा अपने शुद्धस्वभाव में अवस्थित है, वहाँ राग-द्वेषादि भावों की हिलोरें नहीं हैं तो निश्चित ही वहाँ अहिंसा है। इस परिभाषा को केन्द्र में रखकर ही सम्पूर्ण 'अहिंसादर्शन' की व्याख्या की जा सकती है। यदि केन्द्र में यह परिभाषा नहीं रहेगी तो अहिंसादर्शन अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है। अहिंसादर्शन का मूल उद्देश्य है - सभी जीवों का कल्याण और आत्मिक शान्ति या आत्मानुभूति की प्राप्ति।
परिभाषा का आधार और पृष्ठभूमि
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि हिंसा-अहिंसा की इस परिभाषा का आधार आत्मा के अशुद्ध-शुद्धभाव क्यों हैं? - यह प्रश्न भी कोई नया नहीं है, बहुत पुराना है। इसका समाधान भी बहुत पहले ही खोजा जा चुका है क्योंकि हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध जीवों के मरने या न मरने पर ही निर्धारित नहीं है, उस पर निर्धारित किया भी नहीं जा सकता। यही कारण है कि उक्त परिभाषा का आधार व्यक्ति के भीतर खोजा गया। यदि दूसरे के मरने या न मरने के आधार पर हिंसा-अहिंसा की चर्चा करेंगे तो कोई भी, कभी भी पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकेगा।
चूंकि सम्पूर्ण जगत् जीवों से भरा पड़ा है। इस जगत् के प्रत्येक छोटे से छोटे भाग में असंख्य-अनन्त दृश्य-अदृश्य जीव भरे पड़े हैं तो फिर उनकी हिंसा से कैसे और किस प्रकार बचा जा सकेगा? इसीलिए उत्तर आया कि बचने का साधन तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी आत्मा ही अहिंसा है और तुम्हारी आत्मा ही हिंसा है। आत्मा यदि अप्रमत्त है, राग-द्वेष से परे है तो अहिंसा है और यदि आत्मा प्रमत्त है, राग-द्वेष से युक्त है तो हिंसक है।' अहिंसा का हेतु है - अप्रमाद, जबकि हिंसा का हेतु है - प्रमाद। वास्तव में अहिंसा की भाषा और परिभाषा में विवेक करना अत्यन्त आवश्यक है।
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अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसति णिच्छओ समए। जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो।। -भगवती आराधना-803