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अहिंसा दर्शन
भारतीय संस्कृति अध्यात्म - प्रधान संस्कृति है । अध्यात्म की आत्मा है 'अहिंसा' अहिंसा सभी धर्मों का सार है अहिंसा से शून्य धर्म, प्राण विहीन शरीर के समान है अहिंसा की परिभाषाओं की परिधि इतनी अधिक
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विस्तृत है कि कहीं-कहीं उसका केन्द्र भी अदृश्य - सा हो जाता है ।
एक दृष्टि से यह एक विशाल राजपथ है लेकिन दूसरी दृष्टि से इसे सँकरी पगडण्डी से उपमित किया जाता है। यह एक ऐसी पगडण्डी है, जिसके दोनों ओर गहरी घाटियाँ हैं। पर्वतारोही जब पगडण्डी के सहारे ऊपर चढ़ता है, तब दोनों तरफ की गहरी घाटियों में उसे क्षण-क्षण खतरों की सम्भावना बनी रहती है, थोड़ा-सा ध्यान बँटते ही पैर फिसल सकता है। इसी प्रकार अहिंसा का पथ भी तलवार की धार से भी अधिक सकरा है, इस स्थिति में कोई साहसी व्यक्ति ही इस पर चलने का साहस कर सकता है।
यह बात सही है कि शुद्ध अहिंसा का मार्ग आसान नहीं है, पर यह भी उतना ही सच है कि इस पथ पर आगे चले बिना कोई भी महान् नहीं बन सकता । विश्व का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जितने भी व्यक्ति महान बने हैं, उन्हें अहिंसा का आश्रय लेना ही पड़ा है। अहिंसा की व्यापकता, महनीयता और उपयोगिता हमें प्रेरित करती है कि उसके स्वरूप का एक सार्वभौमिक विश्लेषण हो, जो उसे सार्थक और समुचितरूप से परिभाषित कर सके।
दशवीं शती के आचार्य अमृतचन्द्र ने अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या के लिए संस्कृत भाषा में एक ग्रन्थ लिखा है 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' । इस ग्रन्थ में अहिंसा की एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक परिभाषा प्राप्त होती है -
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।
अर्थात् आत्मा में राग-द्वेष आदि विकारीभावों की उत्पत्ति नहीं होना
ही अहिंसा है और उन रागादि विकारीभावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय- ४४