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अहिंसा दर्शन
अहिंसा की भाषा दूसरे के प्राणों को नहीं लेने से जुड़ी है जबकि उसकी परिभाषा अप्रमत्तभाव से जुड़ी है। दूसरे को दुःख नहीं देना, उनके प्राण नहीं लेना - यह अहिंसा की भाषा है और राग-द्वेषभाव से रहित अप्रमत्त होना - यह अहिंसा की परिभाषा है।
अहिंसा : निषेधात्मक (Negative) या विधेयात्मक (Positive)?
'अहिंसा' एक नकारात्मक शब्द है। मूल शब्द है 'हिंसा'। इसके आगे 'अ' जोड़ने से हिंसा का विरोध हो जाता है। न हिंसा अहिंसा'- यह तो मात्र एकाङ्गी निषेधात्मक दृष्टिकोण है। प्रश्न हो सकता है कि मात्र क्या नहीं मारना, नहीं सताना, दु:ख नहीं देना इत्यादि 'नहीं करना' ही अहिंसा है ? या फिर अहिंसा के साथ कुछ 'करना' भी जुड़ा है ? नहीं करना-नहीं करना की भाषा मनुष्य को विचलित भी कर देती है। कर्मशील मनुष्य को क्या करना? कैसे करना? कब करना? की भाषा ज्यादा रुचिकर लगती है।
अहिंसा को सर्वाङ्गीणरूप से समझने के लिए इसके विधेयार्थ और निषेधार्थ, दोनों रूपों को समझना जरूरी है। अहिंसा के सन्दर्भ में 'किसी प्राणी के प्राणों का वियोजन नहीं करना' - इसका जितना मूल्य है, उससे अधिक मूल्य है- 'किसी भी प्राणी के प्रति अनिष्ट (असत्) चिन्तन नहीं करना' तथा उसकी रक्षा करना।
असत् विचार, असत् वचन एवं असत् प्रवृत्ति तीनों हिंसा हैं। जितना भी झूठ बोला जाता है, वह हिंसा की प्रेरणा से ही बोला जाता है। असत् विचार या चिन्तन और असत् वाणी की तरह असत् प्रवृत्ति या व्यवहार भी हिंसा है, चाहे वह किसी के भी प्रति हो। मनुष्य की प्रवृत्ति सत् एवं असत्, दोनों ही प्रकार की होती है। जिस प्रवृत्ति के साथ असत् शब्द का प्रयोग होता है, वह हिंसा से संयुक्त होती ही है।
दूसरों के प्रति द्वेष या ईर्ष्या की भावना, उन्हें गिराने का मनोभाव और उनकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को रोकने के सारे प्रयत्न, हिंसा में अन्तर्गर्भित हैं। दूसरों के मन में भय उत्पन्न करना, उनके सामने दुःखद परिस्थितियाँ