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'अहिंसैव जगन्माताऽहिंसैवानन्दपद्धतिः१
प्राकृत आगम साहित्य में कहा गया कि जैसे भयभीतों को शरण, पक्षियों को गगन, तृषितों को जल, भूखों को भोजन, समुद्र में जहाज, रोगियों को औषध और वन में सार्थवाह का साथ आधारभूत होता है वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधार-प्रतिष्ठान है। जैनधर्म और अहिंसा
जिस धर्म का सम्बन्ध मनुष्य या प्राणी से है, वह धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष का कैसे हो सकता है? यही कारण है कि अहिंसा का महत्त्व संसार के सभी धर्मों तथा महापुरुषों ने स्वीकारा है तथा अपने अपने तरीके से अहिंसा की व्याख्या अपने अपने ग्रंथों में की है।
इन्हीं सभी धर्मों में आरम्भ से ही भारत में अध्यात्म की साधना का मंत्र बतलाता हुआ जैनधर्म भी भारतीय संस्कृति को अहिंसा से आज भी अनुरंजित किये हुये हैं। प्रागैतिहासिक काल से ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें किन्तु अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने अहिंसक जीवन पद्धति की एक व्यवस्थित रूपरेखा हम सभी के समझ उपस्थित की।
यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा की महिमा गायी और उसे अनुकरणीय बतलाया किन्तु यह तथ्य निर्विवाद है कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म और वैज्ञानिक, व्यवस्थित और प्रायोगिक चिन्तन जैनधर्म ने प्रस्तुत किया उतना अन्य धर्म के लोग नहीं कर सके। देश-विदेश के अनेक चिन्तकों ने इस बात को सहर्ष स्वीकार किया है कि अहिंसा जैसे शाश्वत मूल्यों की रक्षा, उसका प्रयोग तथा उसका संवर्धन करने में जैन धर्म ने महान् योगदान दिया है। सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिन्तक, पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह लिखते हैं
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ज्ञानार्णव-आचार्य शुभचन्द्र, 8/32 प्रश्न व्याकरण, संवर द्वार, 1
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