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सप्तम अध्याय
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'हिंसा प्रकृति-प्रदत्त तथ्य है लेकिन मनुष्य का स्वभाव नहीं; हिंसा तो पशु का स्वभाव है और मनुष्य उस स्वभाव से गुजरा है, इसलिए पशुजीवन के सारे अनुभव अपने साथ ले आया है। हिंसा ऐसे ही है, जैसे कोई आदमी राह से गुजरे और धूल के कण उसके शरीर पर छा जाएँ और जब वह महल के भीतर प्रवेश करे, तब भी उन धूल-कणों को उतारने से इन्कार कर दे और कहे कि वे मेरे साथ ही आ रहे हैं; वे मैं ही हूँ।
वे धूल-कण हैं, जो पशुत्व की यात्रा के समय मनुष्य की आत्मा पर चिपक गए हैं, जुड़ गए हैं; वे स्वभाव नहीं है। पशु के लिए स्वभाव हो सकते हैं क्योंकि पशु के पास कोई चुनाव नहीं है। लेकिन मनुष्य के लिए स्वभाव नहीं है क्योंकि मनुष्य के पास चुनाव है।
मनुष्य शुरु होता है निर्णय से, सङ्कल्प से। मनुष्य चौराहे पर खड़ा है, कोई पशु चौराहे पर नहीं खड़ा है। मनुष्य चाहे तो हिंसक हो सकता है, चाहे तो अहिंसक हो सकता है - यह स्वतन्त्रता है उसकी। पशु की यह स्वतन्त्रता नहीं है, पशु की यह मजबूरी है कि वह जो हो सकता है, वही है। आदमी जो है, वही सब कुछ नहीं है, बहुत कुछ और हो सकता है।
आदमी जो है, उसमें उसका अतीत, पशु की यात्रा उसमें जुड़ी है, वह हिंसा है। आदमी जो हो सकता है, वह उसकी अहिंसा है। आदमी का स्वभाव वह है जो, जब वह अपनी पूर्णता में प्रगट होगा, तब होगा। आदमी का तथ्य वह है, जो उसने अपनी यात्रा में अब तक अर्जित किया है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हिंसा, अर्जित है; अहिंसा, स्वभाव है। इसलिए हिंसा छोड़ी जा सकती है। आदमी कितना भी हिंसक हो जाए, छोड़ना सदा सम्भव है क्योंकि वह स्वभाव नहीं है।'
अहिंसा-हिंसा पर आचार्य रजनीश ने जो चिन्तन दिया, यह उसकी झलक मात्र है। यदि इस विषय पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी रचा जाए तो भी कम पड़ेगा। आचार्य रजनीश के चिन्तन के कुछ और बिन्दु भी यहाँ प्रस्तुत हैं।