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1.
अहिंसा दर्शन
आचार्य रजनीश की अहिंसा विषयक युक्तियाँ
अहिंसक चौबीस घण्टे अहिंसक हो सकता है; हिंसक चौबीस घण्टे हिंसक नहीं हो सकता।
अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को उसकी ठीकठीक जगह पहचान लेना ।
प्रेम भी पूरी तरह अहिंसक नहीं हो पाता प्रेम अपने ढंग से हिंसा करता है, प्रेमपूर्ण ढंग से हिंसा करता है। पति-पत्नी, बाप-बेटे एक दूसरे को प्रेमपूर्ण ढंग से सताते हैं। जब सताना प्रेमपूर्ण हो तो बड़ा सुरक्षित हो जाता है। फिर सताने में बड़ी सुविधा मिल जाती है। क्योंकि हिंसा ने अहिंसा का चेहरा ओढ़ लिया।
हिंसा अधोगमन है जीवन-ऊर्जा का; अहिंसा ऊर्ध्वगमन है।
अहिंसा एक अन्तरङ्ग सङ्गीत है और जब भीतर प्राण, सङ्गीत से भर जाते हैं तो जीवन स्वास्थ्य से भर जाता है।
हिंसा, आत्महिंसा का विकास है।
मनुष्य का फूल खिल ही नहीं सकता हिंसा के बीच प्रेम के बीच ही उसका पूरा फूल खिल सकता है।
जीवन में चारों ओर हिंसा है। यह हिंसा रोग है मनुष्य के लिए। यह हिंसा अब अनिवार्य नहीं है, पशु के लिए रही होगी ।
मानसिक संरचना की दृष्टि से हिंसा, मन का खण्ड-खण्ड में टूट जाना है; डिस्इन्टिग्रेशन है, विघटन है अहिंसा, मन का अखण्ड हो जाना है। इन्टिग्रेशन है; एकीभवन है।
'ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया' से सभी अंश संगृहीत।