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अहिंसा दर्शन
आचार्य रजनीश और अहिंसा
आचार्य रजनीश का जन्म 11 दिसम्बर 1931 को मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (जिला-जबलपुर) में एक जैन परिवार में हुआ था। बचपन में उनका नाम चन्द्रमोहन था। जीवन के प्रारम्भिक काल में ही उन्होंने असाधारण निर्भीकता का परिचय दिया था। सौ फीट ऊँचे पुल से कूदकर बरसात में उफनती नदी को तैर कर पार करना उनके लिए साधारण खेल था। 1957 में सागर विश्वविद्यालय से उन्होंने दर्शनशास्त्र से एम.ए. किया और फिर जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में कार्य किया। 1966 में प्राध्यापक पद से त्यागपत्र देकर पूरा समय अध्ययन, मननचिन्तन और व्याख्यान में लगाने लगे। 1974 में आपने पूना में रजनीश आश्रम की स्थापना की। ये आचार्य के बाद क्रमशः एवं भगवान् ओशो के नाम से सुविख्यात हुए। आपके अलौकिक ज्ञान-विज्ञान, दर्शन-अध्यात्म विषयक मौलिक चिन्तन एवं ध्यान के प्रयोग पूरे विश्व में विख्यात हो गए। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है, जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित रहा हो। हर विषय की गहराई में जाना तथा तर्कों, तथ्यों एवं दृष्टान्तों के माध्यम से उसमें से नया चिन्तन निकालकर दुनिया को देना ही आचार्य रजनीश का ध्येय था। भारतीय चिन्तन
और ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाकर आचार्य रजनीश 19, जनवरी 1990 को शरीर छोड़कर महाप्रयाण कर गए।
आचार्य रजनीश का अहिंसा विषयक चिन्तन बहु-आयामी है। अनेक प्रवचनों में अनेक प्रसङ्गों में उन्होंने अहिंसा पर अपनी स्पष्ट राय रखी है। उनके पाँच महाव्रतों पर प्रवचनों का सङ्कलन 'ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया' नाम से प्रकाशित हैं। अहिंसा महाव्रत पर इस पुस्तक में उनके विचार प्रमुखरूप से मुखरित होकर सामने आये हैं।
अहिंसा है स्वभाव और हिंसा विभाव
प्रायः मनोविज्ञान तथा अन्य अनुसन्धानों में यह कहा जाता है कि हिंसा भी मनुष्य का स्वभाव है। आचार्य रजनीश कहते हैं -