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जम्बूकुमार-'भंते! मुझे अपने घर से अब क्या प्रयोजन? मैं वहां क्या करूं?'
'वत्स! अपने बंधुजनों को आमंत्रित करो। उनको अपने संकल्प की अवगति दो। उनके चित्त को समाहित करो। प्रसन्नमना स्वीकृति लो। परस्पर क्षमायाचना कर निःशल्य बनो। उसके पश्चात् कर्म को क्षय करने वाली निर्ग्रन्थ दीक्षा स्वीकार करो। अर्हत् शासन में यह क्रम पूर्वाचार्यों द्वारा सम्मत है।'
अथ चेत् सर्वथोत्कंठा, वर्तते तव चेतसि। एकशः स्वगृहे गत्वा, कुरु कृत्यं मयोदितम्।। बंधुवर्गं समाहूय, समापृच्छ्याथ गौरवात्। समाधानतया कृत्वा, क्षतव्यं च परस्परम्।। पश्चात् गृहाण नैर्ग्रन्थीं, दीक्षां कर्मक्षयंकराम्। एषः क्रमः समाम्नायात्, स्वीकृतः पूर्वसूरिभिः।।
जम्बूकुमार ने सुधर्मा स्वामी के इस परामर्श को शिरोधार्य किया।
सुधर्मा स्वामी ने कहा-'जम्बूकुमार! तुम घर जा रहे हो तो एक संकल्प स्वीकार कर लो तुम आजीवन ब्रह्मचारी रहोगे।'
जम्बूकुमार ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा–'भंते! आप इस संकल्प को स्वीकार करवा दें।' यह संकल्प दिला कर सुधर्मा ने चोटी पकड़ ली। जो गुरु होता है, वह चोटी पकड़ना जानता है।
सुधर्मा ने कहा-'ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्त्व है। देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर-सब ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं
देवदाणवगंधव्वा, जक्ख रक्खस्स किन्नरा।
बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति ते।' जम्बूकुमार संकल्पबद्ध हो गया। मुनि बनने की भावना उदग्र बन गई। भावना की सफलता का अगला चरण है-परिवारजनों की सहमति प्राप्त करना। वह सुधर्मा स्वामी को विनम्रभाव से वंदना कर अपने प्रासाद की ओर प्रस्थित हुआ।
प्रासाद की ओर लौटते समय एक ऐसी घटना घटित हुई, जिससे वह क्षण भर के लिए स्तब्ध हो गया। क्या है वह घटना? उसका क्या प्रभाव हुआ जम्बूकुमार के मानस पर? क्या वह वैराग्य को पोषण देगी?
गाथा परम विजय की