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SAKHIRO
अभय कौन है? प्रत्येक वस्तु के साथ भय जुड़ा हुआ है। केवल वैराग्य एक ऐसा तत्त्व है, जहां कोई भय नहीं है। जहां वैराग्य प्रबल है, वहां धन, शरीर, रूप आदि किसी का भय नहीं होता।
एक आदमी किसी तांत्रिक के पास गया, जाकर बोला-कोई प्रेत सता रहा है। उससे कैसे मुक्ति मिले? तांत्रिक ने ताबीज बनाकर हाथ पर बांध दिया, कहा-अब कोई नहीं सतायेगा। दस-बीस दिन बाद फिर आया। तांत्रिक ने पूछा-'बोलो, कोई डर तो नहीं लग रहा है?'
उसने कहा-वह डर तो कम हो गया पर एक नया डर शुरू हो गया।'
'कौन-सा डर शुरू हो गया?'
'हमेशा यह डर रहता है कि कहीं यह ताबीज खो न
जाए। एक भय मिटता है, दूसरा नया भय पैदा हो जाता है। केवल वैराग्य ही है जो अभय होता है।
जम्बूकुमार ने वैराग्य को उद्दीप्त करने वाली धर्म देशना सुनी। उसका मन पहले से ही विरक्त था। अब वह वैराग्य से सराबोर हो गया। उसका यह निश्चय प्रबल हो गया-मुझे मुनि बनना है।
सुधर्मा की धर्मदेशना संपन्न हुई। परिषद् नगर को लौट गई। जनाकीर्ण उद्यान प्रायः जनशून्य हो गया। उद्यान में सुधर्मा साधनालीन हो, उससे पूर्व जम्बूकुमार आर्य सुधर्मा की निकट सन्निधि में प्रस्तुत हुआ, विनम्र वंदना के साथ बोला-'भंते! मैं मुनि बनना चाहता हूं।'
सुधर्मा ने कहा-'जम्बूकुमार! कहां तुम्हारी यौवन अवस्था! कितना कोमल है तुम्हारा शरीर! कहां यह दुर्धर निर्ग्रन्थ दीक्षा? वह महान् व्यक्तियों के लिए भी दुष्कर है। क्या तुम उस पथ पर चल सकोगे?'
अवस्थेयं क्व ते वत्स! वयो लीलानुसारिणी।
क्वेदं दीक्षाश्रमं सौम्य! दुर्द्धरं महतामपि।। जम्बुकुमार ने अपना संकल्प दोहराया 'भंते! मेरा निश्चय अटल है। मेरे लिए यह पथ दुष्कर नहीं है। आपकी अनुज्ञा और अनुग्रह से मैं इस महान् पथ पर सफलता से चरण-न्यास कर सकूँगा।'
प्रसादं कुरु मे दीक्षां, देहि नैर्ऋथ्यलक्षणाम्।
निस्पृहस्य तु भोगेभ्यः, सस्पृहस्यात्मदर्शने।। सुधर्मा ने परामर्श देते हुए कहा-वत्स! यदि तुम्हारी तीव्र उत्कंठा है तो तुम एक बार अपने घर जाओ।' ११०
गाथा परम विजय की