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हे आत्मन् ! भावना का महत्त्व ज्ञान से ज्यादा है। ज्ञान एक साथ सब कुछ पा जाना चाहता है। भावना धीरेधीरे शक्ति अर्जित करते हुए सब पा जाती है। ज्ञान से कभी भी तीर्थंकर पद नहीं मिल सकता है, भावना से ही तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। ज्ञान में सिर्फ कार्य दिखता है किन्तु भावना से गुणवत्ता आती है। पाषाण से भगवान की मूर्ति बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। पाषाण को समझने के लिए ज्ञान चाहिए, उसे शिल्पकला से मूर्ति का रूप देने में ज्ञान चाहिए। उस पाषाण को सुन्दर कलाकृति ज्ञान के द्वारा बनाया जाता है। किन्तु पाषाण में भगवत् सत्ता ज्ञान के द्वारा नहीं आ सकती है। पाषाण की मूर्ति को भगवान् बनाने के लिए भावना की आवश्यकता है। मन्त्र में शक्ति भी भावना से आती है। एक मन्त्र का उच्चारण कर लेना, पढ़ना, सीख लेना तो ज्ञान है किन्तु उस मन्त्र को सिद्ध करना भावना के बिना सम्भव नहीं है। उन सिद्ध मन्त्रों को उस पाषाण मूर्ति में प्रतिष्ठित किया जाता है तब वह मूर्ति की प्रतिष्ठा होती है। तभी उस मूर्ति में जीवन्तता आती है। प्राण प्रतिष्ठा इसीलिए कहा जाता है कि उस मूर्ति में प्राण डाल दिये गये हैं। प्राण भावना की प्रगाढ़ता है। भावना की विशुद्धि ही उस पाषाण मूर्ति को जीवन देती है।
एक कर्म कलंकित आत्मा भी संसारी दशा में जब सोलह कारण भावना भाता है तो वह भगवत्पद को प्राप्त कर लेता है। भावनाओं का ही यह महत्त्व है, ज्ञान का नहीं।
भावना पाषाण को भगवान बना देती है साधना अभिशाप को वरदान बना देती है।
विवेक का स्तर नीचे गिर जाने पर, वासना इन्सान को शैतान बना देती है।
आयुर्वेद में चौंसठ पहरी पीपल बनाई जाती है। जो औषधि का काम करती है। चौंसठ पहर तक इस पीपल के ऊपर चोट मारी जाती है तब उसमें वह औषधीय गुण प्रकट होता है। यदि कोई ज्ञान से यह गणित लगाए कि एक पहर (यानी ३ घंटे) में इतनी चोटें पड़ती हैं तो मशीन के द्वारा उतनी चोटें कुछ मिनट में देकर उस पीपल को
औषधि बना लें। यह सम्भव नहीं है। ज्ञान से काम चलाया जा सकता है किन्तु सही गुणवत्ता तो भावना से ही आती है। ज्ञान से सार तत्त्व की जानकारी होती है किन्तु भावना से उस सार की अनुभूति होती है। भावनाओं का इतना महत्त्व है कि भगवान् महावीर ने मात्र पाँच महाव्रत का ही उपदेश नहीं दिया किन्तु उन महाव्रतों की सुगंधि साधक के जीवन में फैले इसके लिए उन्होंने एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं भी बताई हैं।
जैन दर्शन में भावनाओं का महत्त्व ज्ञान से ज्यादा है। ज्ञान मुख में रखे ग्रास को निगल जाता है और भावना उस ग्रास को कम से कम ३२ बार चबाता है। चबाने से शरीर का स्वास्थ्य बना रहता है। आँतों को काम कम करना पड़ता है। पूरा भोजन सरलता से पचता है और शरीर को पुष्टि देता है। यदि दाँत का काम कम होगा तो आँतों को काम करना पड़ेगा जिससे जल्द ही आँत खराब हो जाएगी।
इसी तरह ज्ञान से ज्यादा समय उस ज्ञान को भावना के रूप में परिवर्तित करने में लगाना चाहिए। इसीलिए आचार्य पूज्यपाद देव सर्वाथसिद्धि में स्वाध्याय की परिभाषा में लिखते हैं कि