________________
ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः
अर्थात् आलस्य त्याग के साथ ज्ञान की भावना करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय में अपना अध्ययन होता है। स्व का अध्ययन हो। स्व का अध्याय खुल जाए। स्वयं के गुण-दोषों का निष्पक्ष मूल्यांकन ही स्वाध्याय है।
बहुत गहरी बात कही है यहाँ कि- स्वाध्याय मात्र ज्ञान का नाम नहीं है किन्तु ज्ञान की भावना करो। ऐसी भावना करो कि आलस्य अपने आप छूट जाए। इस पंक्ति का सही अर्थ यह है कि ज्ञान भावना से आलस्य त्याग करके अप्रमत्त बने रहना स्वाध्याय है। ज्ञान का अन्तिम फल अप्रमत्तता यानि सावधानी है। इस सावधानी तक वही ज्ञान पहुँचता है जिस ज्ञान में भावनाओं का निरन्तर पुट दिया जाता है।
खाओ कम पचाओ ज्यादा पढ़ो कम विचारो ज्यादा
आज कल लोग अध्ययन को, पढ़ाई को बहुत महत्त्व दे रहे हैं किन्तु भावना का महत्त्व नहीं समझ रहे हैं। आज का युग चिन्तनशील होने की बजाय ज्ञान का भार लादे फिर रहा है। चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति के लिए बच्चों से लेकर बूढों तक किसी को समय नहीं है। चिन्तन के अभाव में कभी सृजनात्मकता (creativity) नहीं आ सकती है। चिन्तन के अभाव में ज्ञान संवेदना शून्य हो जाता है। भावना का असर जितना अधिक दूसरे पर पड़ता है उतना ज्ञान का नहीं। हिचकी का मनोविज्ञान इसी बात की पुष्टि करता है कि कहीं दूर भी स्थित किसी व्यक्ति को यदि हार्दिक भावनाओं से याद किया जाता है तो उसके शरीर पर उसका प्रभाव पड़ता है। आज घर बैठे 'रैकी' पद्धति के माध्यम से हजारों किलोमीटर दूर बैठे व्यक्ति का इलाज भी किया जा रहा है। यह पद्धति मात्र भावनाओं पर आधारित है। भावनाओं का इतना दूरस्पर्शी प्रभाव होता है कि घर में बैठे हुए तीर्थंकर जब वैराग्य भावना भाते हैं तो लौकान्तिक देवों को उसका ज्ञान हो जाता है। वह देव शीघ्र आकर उन तीर्थंकर के वैराग्य की प्रशंसा करते
हैं।
भाव से ही व्रत हैं। भाव से ही जिनलिंग है। मात्र वस्त्र रहित होने का नाम जिनलिङ्ग नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि- 'भावेण होइ णग्गो' भाव से ही नग्नता पूज्य है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने तो इन भावनाओं की प्रधानता को ध्यान में रखकर ही भावपाहुड़ ग्रन्थ बनाया। इस ग्रन्थ में मात्र भावना को तदनुरूप करने के लिए कहा है।
एक माँ बेटे को जब बड़ा करती है तो हर समय उसे भावना देती है। बोलो बेटा- माँ, बोलो बेटा- पापा। बार-बार हजार बार दिन भर में उस बेटे को पापा-मम्मी-भाई-बहिन के शब्द बुलवाकर इतनी भावना उस बेटे में भर देती है कि वह बेटा बड़ा होकर इन सब परिवार के सदस्यों में अपनी ममत्त्व स्वीकारता चला जाता है।
यदि कोई माँ मन्दालसा की तरह अपने बेटे को अध्यात्म की लोरियाँ सुनाए तो वह बेटा अध्यात्मनिष्ठ अवश्य बनेगा। आत्मा की ये भावनाएँ किस माँ को याद हैं? -