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मुस सूत - रत्न- भरपा-१
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किं सुमिणदिठ्ठपरमत्थ-सुन्नवत्थुस्स करहु पडिबंधं ?। सव्वं पि खणियमेयं, विहडिस्सइ पेच्छमाणाण ॥१०४॥
~~ अज्ञातमहर्षिकृतं जीवानुशास्तिकुलकम् - रे जीव ! चिंतसु तुम, निमित्तमित्तं परो हवइ तुज्झ । असुहपरिणामजणियं, फलमेयं पुव्वकम्माणं ॥१०५॥ जीवि मरणेण समं, उप्पज्जइ जुव्वणं सह जराए । रिद्धी विणाससहिआ, हरिसविसाओ न कायव्वो ॥१०६॥
__- देवेन्द्रसूरिकृतं वैराग्यकुलकम् ~~ किंपाकफलसमाणा, विसया हालाहलोवमा पावा। मुहमहुरत्तणसारा, परिणामे दारुणसहावा ॥१०७॥ ता मा कुणसु कसाए, इंदियवसगो मा तुम होस् । देविंदसाहुमहियं, सिवसुक्खं जेण पाविहिसि ॥१०८॥
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