________________ उसके नैमित्तिक अधिवेशन में लखनऊ के 10 अजित प्रसाद वकील प्रति अपने कई सहयोगियों सहित सम्मिलित हुऐ और समाज सुधार विषयक कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराये सम् 1602 से 1608 तक वह भा० दि० जैन सभा तथा जैन यंगमेन्स एसोसिऐशन (कालान्तर में भारत जैन महामडल ) के सयुक्त पाक्षिक पत्र जैन गजट के प्रबन्धक एवं कार्यकारी सपादक रहे-१६०५ में उसे उन्होंने साप्ताहिक कर दिया और 1608 में पंडित जुगलकिशोर जी मुख्तार को उसे सौंपकर उससे छटी ली। इस बीच सन 1903 में पिता मक्खनलाल का और मार्च 1904 में एक सप्ताह के भीतर ही माता, धर्मपत्नि तथा अनुज पन्नालाल का देहान्त हो गया। इन असह य विय गों ने संसार की क्षणभंगुरता उन्हें प्रत्यक्ष कर दी, और वह गृहस्थ से विरक्त एवं उदासीन हो गये, तथा अपना प्रायः सारा उपयोग धर्म एवं समाज की सेवा में लगाने लगे। 1905 में तो उन्होंने रेलवे की सविस से भी त्यागपत्र दे दिया। कुछ मास पूर्व ही वह बम्बई की महिला रत्न मगनबेन तथा उनके समाजचेता पिता सेठ माणिकचन्द्र जे०पी० के संपर्क में आ गये थे, अत : अब वह बाहर अधिक जाने-आने लगे। उसी वर्ष अम्बाला में हुऐ दि. जैन महासभा, पंजाब प्रांतिक दि० जैन सभा और जैन यंगमेन्स एसोसियन के संयुक्त अधिवेशन में भाग लिया फलस्वरूप जनवरी 1605 के अंग्रेजी जैन गजट में बैरिस्टर जे० एल० जैनी ने जैन धर्म का अथक परिश्रमी सेवक" कहकर इनकी सेवाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसी वर्ष उन्होंने वाराणसी में सेठ माणिकचन्द्र के सभापतित्व में स्याद्वाद विद्यालय की स्थापना में प्रमुख योग दिया और जीवन भर उक्त संस्था को उन्नति में सहायक रहे, कई वर्ष उसके अधिष्ठाता भी रहे। तदनन्तर वह बम्बई में सेठ जी के पास ही रहने लगे। 13 सितम्बर सन् 1606 को शोलापुर में ऐल्लक पन्नालाल जी के केशलोंच के अवसर पर पहुँचकर शीतलप्रसाद जी ने उनसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा ग्रहण की, और अब वह सच्चे गृहत्यागी, व्रती-श्रावक, गेरुआ वस्त्रधारी जैन परिब्राजक हो गए तथा उनका शेष जीवन जैन धर्म, संस्कृति, समाज एवं देश की सेवा में पूर्णतया समर्पित हो गया। जैन धर्म और समाज की सर्वतोमुखी उन्नति के प्रयत्न में उन्होंने अपने जीवन का एक एक क्षण लगा दिया। (16 )