________________ 1911 से 1941 पर्यन्त ब्रह्मचारीबी ने मुल्तान, जयपुर,वाराणसी, बम्बई, इन्दौर, कारंजा, बड़ौदा, बागीदौरा, दिल्ली, लखनऊ, कलकत्ता, पानीपत, इटावा, बड़ौत, खंडवा, रोहतक, उस्मानाबाद, अमरोहा, मुरादाबाद सागर, इटारसी, अमरावती, हिसार, दाहोद आदि विभिन्न स्थानों में चातुर्मास किए। वह प्रत्येक चातुर्मास में भाषण, शास्त्रा प्रवचन, धर्म प्रचार, शिक्षाप्रचार समाजसुधार आदि कार्यक्रमों के अतिरिक्त एक या दो पुस्तकें भी लिख लेते थे / अनेक स्थानों में उन्होंने उपयोगी संस्थाओं की स्थापना कराई / वह अपना नाम किसी संस्था के साथ सम्बद्ध नहीं करते थे और ख्याति, नाम उपाधियों से बचते थे / तथापि 1913 में वाराणसी में पं० गोपालदास जी बरैया की अध्यक्षता और डा० हर्मन जैकोबी की उपस्थिति में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया, और 1924 में इटावा में " धर्मदिवाकर" की उपाधि प्रदान की गई। भारतवर्षीय दि० जैन परिषद, संयुक्त प्रान्तीय दि० जैन सभा , वर्गीय सर्वधर्म परिषद्, सनातन जैन समाज आदि अनेकों महत्वपूर्ण सामाजिक संगठनों को स्थापना में ब्रह्मचारी जी अग्रणी, सहायक वा प्रेरक रहे / स्याद्वाद विद्यालय, बाराणसी एवं ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, हस्तिनापुर के अतिरिक्त अनेक स्थानों में पाठशालाएं, विद्यालय, छात्रावास, बालाविश्राम, पुस्तकालयों आदि की स्थापना उन्होंने कराई। वह स्वयं शुद्ध खादी का प्रयोग करते थे और जैन समाज में सर्वत्र उसका प्रचार करते थे। राष्ट्रीय काँग्रेस के प्राय : प्रत्येक अधिवेशन में वह उपस्थित रहे और जैनों का प्रतिनिधित्व किया। लगभग 5 वर्ष "जैनगजट" का लगभग 15 वर्ष "जैनमित्र" का और प्रारंभ में कई वर्ष "वीर" का उन्होंने संपादन किया और अपने अनगिनत लेखों के द्वारा समाज को जाग्रत करने तथा उसमें नव प्राण फूंकने में वह सचेष्ट रहे / अनेक लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समाज-सेवियों आदि को प्रेरणा एवं सहयोग देकर तैयार करने का उन्हें श्रेय है। कई विस्मृत तीर्थों का उन्होंने उद्धार किया और विभिन्न प्रान्तों के जैन पुरातत्व का सर्वेक्षण या अध्ययन करके उसे उजागर किया। वह निरन्तर भ्रमण करते रहते थे, और सम्पूर्ण भारत की ही नहीं, बल्कि लंका व बर्मा की भी यात्रा की। उनके हृदय में जैन धर्म के प्रचार, जैनसंस्कृति की प्रभावना और जैन समाज की सर्वतोन्मुखी उन्नति के लिए अद्भुत तड़फ थी / फलस्वरूप वर्तमान शताब्दी के प्रथम चार दशकों में ब्रह्मचारी (17 )