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________________ जिससे रक्तपात न हो और महायुद्ध हो जावे) संसार की किसी भी संस्कृति और जाति में रक्तहीन-युद्ध की चर्चा नहीं है। न सैनिक मारे जावें, न नगर उजाड़े जावे, न राज्य नष्ट किये जावें और युद्ध सम्पन्न हो जावे। बाहुबली मौन थे। भरतजी ने आगे बतलाया 'भैया बाहुबली, यदि हम दोनों अपने पौरुष का उपयोग कर पहले दृष्टि-युद्ध करे, फिर जल-युद्ध और फिर मल्ल-युद्ध तो अन्य को कोई क्षति न होगी। न हिंसा होगी, न सहायता शिविरों में विकलांगों की पंक्तियाँ लगेगी, न सैनिकों के परिवार उनका शव खोजते फिरेंगे। मगर बाहुबली उक्त तीन युद्धों में अग्रज के प्रति मर्यादा का खण्डन देख रहे थे। उन्होंने कहा- मैं अग्रज से दृष्टि-युद्ध आदि कर निर्लज्ज नहीं बनना चाहता। (पूरे लेखन में- लोकमत की भावना का ध्यान रखते हुए, एक महान् प्रवर्तन किया गया है जो सदियों तक अहिंसा के उपासकों के साथ-साथ, हिंसा का नग्न-नाच करने वालों का मार्गदर्शन करेगा। आज संसार को ऐसे ही साहित्य की आवश्यकता है, कृपया पूर्व प्रेषित मूल-कथानक पर दृष्टिपात करें)। तीनों युद्ध श्रेष्ठ धरातल पर बाहुबली द्वारा खारिज कर दिये गये, तब उनकी महानता से भरत इतने प्रभावित हुए कि उन्हें नमन करने का मन हो आया। उनसे पूछकर भरत ने अपना चक्र, उनकी 'विनय-परिक्रमा' के लिए छोड़ा। (पृ. 10 देखें)। उक्त घटना के बाद बाहुबली ने निर्जन वन की ओर जाकर मुनि-दीक्षा धारण की और तपश्चर्या में लीन हो गये। भरतजी वापिस आ गये। वे 'चक्री' घोषित हो गये। चक्रवर्ती महाराज भरत। बाहुबली के तप का वर्णन। सर्प की वामियाँ। हिंसक जानवर। ऋतुएं। ठण्ड, ग्रीष्म, वर्षा का प्रभाव। विषधरों का लिपटना। एक वर्ष का उप्रवासाखबर आचार्य ऋषभदेव तक पहुँच गयी। महाराज भरत उनके दर्शन-वन्दन करने उनके पास गये। (पृ. 13) तीन परिक्रमा कर पूजन-पाठ किया। फिर भरत द्वारा सम्बोधन। वे बाहुबली जी के हृदय में जमी शल्य को हटाने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने निवेदन किया- 'अयुद्ध संस्कृति के पुरोध! कृपया निःशल्य होइए।' ___ तभी आचार्य ऋषभदेव का सन्देश लेकर बाहुबली की दो बहिनों, ब्राह्मी और सुन्दरी का आगमन हुआ, उन्होंने गुरु के निर्देशानुसार मृदुवाणी में एक श्लोक का उच्चारण किया आज्ञापयति तातस्त्वा, ज्येष्ठार्य भगवानिदम्। हस्तिस्कन्धाधिरूढ़ानां, उत्पयेत न केवलम्।। हे वरिष्ठ आर्य! पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेव ने कहलाया है कि गजराज के कन्धे पर चढ़े हुए को कैवल्य-रत्न की उपलब्धि नहीं होती। उनकी वाणी की भनक से महायोगी बाहुबली का मानस झंकृत हो उठा, वे सोचने लगे- “हाथी के कन्धे पर चढ़ा व्यक्ति माने अहङ्कार के स्कन्ध पर चढ़ा साधु।" __ उनकी तन्द्रा की अन्तिम कड़ी चटख गयी, उन्होंने नेत्र खोले, भगवान् ऋषभदेव की दिशा में हाथ जोड़कर नमोस्तु किया और विहार करने कदम बढ़ाया। पहले कदम पर ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। निमिषमात्र में लोक से परलोक तक व्याप्त गये। वसुधा की सुधा के बाद, मोक्ष लक्ष्मी के भी अधिकारी बने।
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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