________________ गृहविरत भरत और योगीश्वर बाहुबली की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि - अध्यात्म रत्नाकर पण्डित रतनचन्द भारिल्ल, जयपुर कर्नाटक प्रदेश के श्रवणबेलगोला के विन्ध्यगिरि पर स्थित 57 फुट उत्तंग सर्वाङ्ग सुन्दर योगीश्वर गोम्मटेश बाहुबली की सहस्राधिक वर्ष प्राचीन ऐतिहासिक उपसर्ग एवं परीषहजयी मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से तो अद्यावधि बेजोड़ है ही, साथ ही यह सम्पूर्ण संकुचित, साम्प्रदायिक सीमाओं को लांघकर देश-विदेश के जैन/जैनेत्तर सभी धर्मनिष्ठ और मूर्तिकला प्रेमियों की श्रद्धा-भक्ति की केन्द्र भी बनी हुई है। परमशान्त मुद्रायुक्त, वीतरागता की संवाहक, खिों लोगों के कल्याण में निमित्त बनने वाली गोम्मटेश बाहुबली की मूर्ति की स्थापना को एक सहज सुख संयोग ही कहना होगा, जो भव्य जीवों के भाग्य से सर्वप्रथम गंगवंशी राजा राजमल्ल के राज्यमन्त्री एवं सेनाध्यक्ष चामुण्डराय के मन-मस्तिष्क में कल्पना के रूप में प्रसूत हुई थी और बाद में उन्हीं के सत् प्रयासों से अद्भुत कलाकृति के साथ तप-त्याग की सर्वोत्कृष्ट प्रतीक प्रतिमा के रूप में आविर्भूत हुई। यह भी एक सहज संयोग रहा कि सभी तीर्थङ्करों के गर्भ-जन्म-तप आदि पाँचों कल्याणक उत्तर भारत में ही हुए। इस कारण समस्त तीर्थस्थान उत्तर भारत में ही हैं। उनके दर्शनार्थ दक्षिण भारतीयों का उत्तर भारत में आना तो स्वाभाविक ही था, परन्तु उत्तर भारतीयों को दक्षिण में जाने के लिए ऐसा कोई आकर्षण नहीं था, जिसके कारण उत्तर के भारतीय दक्षिण में पहुँचते। एतदर्थ अत्यन्त दूरदर्शी, राष्ट्रीय एकता के प्रति प्रतिबद्ध एवं सामाजिक संगठन के लिए समर्पित, वीर मार्तण्ड, समरकेसरी, सुभट चूड़ामणि आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी चामुण्डराय द्वारा यह विशालतम मूर्ति निश्चित रूप से दक्षिण एवं उत्तर भारत की जैन समाज को एकता के सूत्र में बांधने के पावन उद्देश्य से स्थापित की गयी थी, जो आज भी अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल है। आश्चर्यजनक यह है कि सम्पूर्ण विश्व में फैली जैन जनता को इस मूर्ति ने अपने सौन्दर्य और परमशान्त वीतराग छवि से इतना अधिक प्रभावित किया कि आज भारत के कोने-कोने में इस मूर्ति की प्रतिकृति के रूप में लाखों मूर्तियाँ विराजमान हो गयी हैं और अभी भी अनवरत रूप से वैसी ही या उससे मिलती-जुलती मूर्तियों का निर्माण हो रहा है। जर-जोरु और जमीन के निमित्त से भाई-भाई में और साधर्मी भाइयों में संघर्ष होने की परम्परा तो बहुत पुरानी है ही, धर्म की आड़ में साम्प्रदायिक दंगे भी कम नहीं हुए। आज भी ऐसे अनेक तीर्थस्थान हैं, जिन पर चल रहे मुकदमों के कारण साधर्मी भाई-भाई भी आये दिन कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटा करते हैं। ऐसे किसी विवाद के विषय भगवान् बाहुबली न बने, इस दूरदर्शी दृष्टिकोण से ही सम्भवत: चामुण्डराय द्वारा उक्त मूर्ति को खड्गासन के रूप में सम्पूर्ण दिगम्बरत्व के लक्षणों से युक्त बनवाया गया है। फलत: यह सम्पूर्ण जैन/ जैनेतर समाज की श्रद्धास्पद होते हुए भी निर्विवाद है। . ट