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________________ भरत-बाहुबली (आयुध-संस्कृति की वर्जना के पुरोधा) - सुरेश जैन 'सरल', जबलपुर अजनाभवर्ष (अब भारतवर्ष) के महाराज ऋषभदेव के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ भरत और उनके अनुज बाहुबली का प्रसंग सर्वविदित हैं, जिनके आचार-विचार में मानाभिमान से परे, वात्सल्य का सागर लहराता था, पर समकालीन व्यक्ति और पारिवारिकजन उन्हें शीघ्रता से नहीं समझ पाये। (चूँकि यहाँ सारांश दिया जा रहा है, लेख या कथा नहीं, अत: इसकी प्रस्तुति भी उसी 'ट्रेक' पर की जा रही है) दरअसल तीर्थङ्कर होने वाले शासनकर्ता- महाराज- ऋषभदेव के पत्र राज्य, सेना, मारकाट, सुख-सविधा की चाह, सीमातिक्रमण की भावना, आयुधों के भण्डारण के भाव आदि न रखते हुए, पिता द्वारा प्रदत्त अपने-अपने राज्य की जनता का 'पितृवत् पालन करते हुए सेवा, सदाचार, विद्यार्जन और कुलीन संस्कारों का वपन कर रहे थे। शिक्षा, चिकित्सा, धर्म, क्रीड़ा, साहित्य और मनोरंजन के स्वस्थ साधन भी गांव-गांव में जुटा रहे थे। अभिप्राय यह कि महाराज ऋषभदेव के समय जो श्रेष्ठ न्याय-व्यवस्था और शासन-व्यवस्था स्थापित की गयी थीं, उन्हीं का सुन्दर और सार्थक प्रवर्तन कर रहे थे। पिता द्वारा हर पुत्र को पृथक् राज्य (भू-भाग) सौंपा गया था, तदनुकूल राजा श्री भरतजी की राजधानी अयोध्या थी और राजा श्री बाहुबली की तक्षशिला स्थित पोदनपुर। एक राजा पूर्व का सूर्य तो दूसरा पश्चिमाञ्चल का चन्द्र। कुछ वर्षों के बाद दोनों राजाओं को, अपने पिता की तरह, वैराग्य भाव हो आया। वे पुत्रों को राजपाट देकर स्वत: वन-वाट पर चलने का मन बना बैठे। पर मन्त्रियों के समझाने से कुछ काल के लिए योजना स्थगित कर दी। इस बीच श्री भरत के मन्त्रियों और समीपी मित्रों ने उन्हें चक्रवर्ती- पद प्राप्त करने का परामर्श प्रदान किया। चक्रवर्ती माने सब राजाओं (शासकों) के ऊपर महाराजा, सम्राट, महाशासक, महान्यायविद्, महाशास्त्रविद्, महावास्तुविद्, महापुराविद् आदि-आदि और महापालक, महासेवक और महासंरक्षक भी। भरतजी और उनका मन्त्री परिकर जानते थे कि सभी राजागण परोपकार की भावना से भरे हुए है, अत: उनका प्रस्ताव सहज स्वीकार्य हो जावेगा, केवल रश्म-अदायगी करना है। भरतजी को चक्रवर्ती के लौकिक-पद से अधिक श्रेष्ठ दिगम्बर-मुनि का पद था;किन्तु वे मौन रह गये। चक्रवर्ती का प्रस्ताव लेकर राज्यचर विभिन्न राजाओं की ओर गये- आये। शीघ्र ही राजागण उन्हें चक्रवर्ती स्वीकार कर, स्वत: जैनेश्वरी दिगम्बर-मुनि-दीक्षा प्राप्त करने कैलाश पर्वत पर अवस्थित महामुनि, आचार्य (भगवान्) ऋषभदेव के संघ में चले गये। राजा बाहुबली कुछ सोच में पड़ गये थे। सहज ही अग्रज को 'चक्रवर्ती' स्वीकार कर लूँ। (यहाँ, इस लेखन से, यह बतलाने का प्रयास किया है कि युद्ध की भावना दोनों भाइयों में नहीं थी) भरतजी अपने अनुज की भावभूमि जानने, विविध भेंटों के साथ, उनसे मिलने चल पड़े। सेना, पालकी, रथ, गाजे-बाजे। अनुज भी उनकी भावभीनी अगवानी के लिए तत्पर थे। पोदनपुर द्वार पर दोनों राजाओं (भाइयों) का मिलन, दोनों समूहों का मिलन। (फिर भरत द्वारा आयुध के उपयोग बिना, युद्ध करने की भावना बतलाना
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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