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________________ श्रमण परम्परा और श्रुतस्थापना - रतनचन्द नेमिनाथ कोटि, इण्डी श्रमण अर्थात् जैन संन्यासी निर्ग्रन्थ रहकर श्रमण संस्कृति का पालन करते हैं। अर्थात् निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय जैन संस्कृति का पालन करते आए- ऐसा कह सकते हैं। श्रमण संस्कृति निवृत्ति प्रधान है। तीर्थङ्कर वृषभदेव और भगवान् महावीर से आज तक जैन श्रमणों ने अहिंसामय धर्म मोक्ष के साधन के लिए ही आचरण करते आए हैं। इसलिए जैनधर्म में निम्रन्थ मुनियों को प्रथम स्थान में प्रतिष्ठापित करके उनके ही द्वारा संस्कृति श्रमण-परम्परा द्वारा प्रवर्तित है। संस्कृति का अर्थ बहुत विशाल है। मानवों के आत्मोद्धार के लिए मार्गस्थ लाने वाले संस्कारित आत्मा की परिणति ही संस्कृति कहलाती हैं। यह भारतीय आध्यामिक साधना पर अवलम्बित है। संस्कृति लोगों के अन्तरंग में जैसा संस्करित होता है वैसे ही मोक्ष मार्ग परिपूर्ण होता है। भारतीय संस्कृति में प्रथम से श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति ऐसे भिन्न-भिन्न मार्ग से प्रवाहित हुए है। इसमें श्रमण संस्कृति को ही जैन-संस्कृति को सुरक्षित रखने का श्रेय है, क्योंकि श्रमण ही जिन के उपासक ही होते है। यह संस्कृति विकसित होने के लिए त्रिषष्ठीशलाकापुरुषों से लेकर श्रमण मुनियों से यह धर्म यहाँ तक प्रवाह रूप में आया है। पृथ्वी पर सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही देव है, ऐसा श्री नयसेन कवि के अभिप्राय में प्रकट होता है कि श्रमण ही जैनधर्म का प्रमुख आधारस्तम्भ हैं। जैनधर्म का श्रेष्ठत्व जैनधर्म विश्व में सभी धर्मों में अत्यन्त प्राचीन धर्म है। जिन का पूजन करने वाले जैन हैं और जैनों ने जो धर्म पालन किया है वह धर्म जैनधर्म है। दूसरे प्रकार से जिन ने दिव्यध्वनि से उपदेश किया हुआ धर्म जैनधर्म है। जिन शब्द का अर्थ जीतने वाला होता है जिसने अपने सब कर्म और इन्द्रियों को जीत लिया है वही जिनेन्द्र भगवान् है। प्रत्येक जीव पुरुषार्थ करके जिन हो सकते है। जिनेन्द्र को ही सर्वज्ञ कहा है। वही वीतरागी है। जिन का उपदेश किया हुआ धर्म प्रमाणबद्ध है। यह स्याद्वाद भूमिका पर आधारित है। इनके साथ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र का भी महत्त्व है। यह अहिंसा पर आधारित है। इसलिए जैन-संस्कृति में आत्मशुद्धि के लिए आचार और विचार दोनों का एक दूसरे के साथ पूरक है। जैनधर्म जीवों को मुक्ति मार्ग पर ले जाने वाला उत्कृष्ट धर्म है। यही विश्वधर्म और आत्मधर्म है। यथार्थ में इसी धर्म से वस्तु स्वभाव का दर्शन होकर सिद्ध दशा प्राप्त होती है। यही जैनधर्म भगवान् महावीर के समय निग्गण्ठधम्म याने निम्रन्थ धर्म कहा जाता था इसलिए इसे श्रमण धर्म भी कहते है। इस श्रमण धर्म का इतिहास परम्परा से आया हुआ है, ऐसा समझना आत्मशुद्धि के लिए बहुत कार्यकारी है। जैनधर्म विश्व में अद्भुत, अनन्य, पूर्वापर विरोध से रहित ऐसा धर्म है। विश्व का कोई भी ध्णम इसके साथ तुलना नहीं कर सकता, क्योंकि इसमें रहने वाले अनन्त विशेषताएँ यथार्थताएँ और सत्यांश भी इसका कारण हो सकता है। इसको ही दयाधर्म, आत्मधर्म और अहिंसा धर्म से कहा जाता है। - 7-5
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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