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________________ है तथा निरन्तर अभ्यास करने से इसकी सहायता से अन्य लिपियों को समझने में सरलता रहती है। प्रसिद्ध विद्वान् राहुल सांकृत्यायन ने भी कहा है- यदि कोई एक ब्राह्मी लिपि को अच्छ तरह सीख जाए तो वह अन्य लिपियों को थोड़े ही परिश्रम से सीख सकता है। साधारण ज्यामीतिक (रेखा गणित) चिन्हों- रेखा, कोण, वृत्त, अर्धवृत्त, आड़ी तिरछी तथा पड़ी रेखाओं आदि विभिन्न संयोगों से ब्राह्मी का निर्माण हुआ है। मात्राओं का प्रयोग एवं संयुक्ताक्षर इसकी प्रमुख उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। इसमें प्रमुख 6, स्वर 33 व्यञ्जन अर्थात् 39 अक्षर प्राप्त होते हैं। ब्राह्मी को सीख लेने से हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों को पढ़ने-समझने में बहुत सहायता मिलती है। प्राचीन पाण्डुलिपियों में अनेक अक्षर ब्राह्मी अक्षरों से मिलते-जुलते पाये जाते है तथा देवनागरी में कोई-कोई अक्षर ज्यों का त्यों ब्राह्मी का ही जैसे 'ढ'। कहावत भी है किसी भी व्यक्ति के स्वभाव में कुछ भी परिवर्तन न होने पर उसे कहा जाता है- “आप तो ढ के ढ ही रहे'' सन् 1833 में मि. प्रिन्सेप जैसे विद्वान् ने अनेक वर्षों तक कड़े परिश्रम, लगन से इस लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इनके पहले भी प्रयत्न हुए परन्तु इस लिपि की भाषा संस्कृत भाषा समझ लेने और इसे ही आधार मानकर इस लिपि को पढ़ने में असफल रहे। वस्तुतः प्राकृत भाषा इन शिलालेखों की भाषा है- यह निश्चित होने पर ही इस लिपि को पढ़ा जा सका। आरम्भ में 'द' और 'न' अक्षर (दान) पढ़ लेने के बाद से इस लिपि को समझ लेने का उद्घाटन हुआ। इसके बाद लम्बे समय के क्रमश: अभ्यास के बाद इसके सभी अक्षर और यह लिपि पूरी तरह पढ़ने में विद्वान् सक्षम बन सके। प्राचीन भारतीय शासकों के सबसे प्राक्कालीन पुरालेखीय विवरण प्राकृत-भाषा में मिलते हैं। मूलत: सारे भारत की पुरालेखीय भाषा प्राकृत थी, जो शिलालेखीय प्राकृत के नाम से जानी जाती है। अशोक के पूर्व अधिकांश अभिलेख जनभाषा प्राकृत में लिखे हुए मिलते हैं। भारत का प्रथम भाषाविज्ञान का सर्वे अशोक के अभिलेखों से हुआ। स्थान विशेष से भाषा में कथञ्चित अन्तर हैं इसे वैभाषिक प्रवृत्ति कहा जाता है। उदाहरण के रूप में पश्चिमोत्तर में पैशाची प्राकृत, पूर्व में मागधी प्राकृत, दक्षिण-पश्चिम में शौरसेनी और मागधी की मिश्रित प्रवृत्ति पायी जाती हैं। अर्थात् इन प्राचीन शिलालेखों की भाषा 'प्राकृत' और लिपि 'ब्राह्मी' है। कालान्तर के बाद यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत पाई गई। - इस प्रकार जो तत्त्व हमें साहित्य में नहीं मिलते, वे शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। हमें अपने इतिहास को समझने के लिए ब्राह्मी लिपि को पढ़ना-लिखना सीखने के लिए जागरूक होना आवश्यक है। 'भारतवर्ष' ही हमारे देश का नाम है इसका शिलालेखीय एकमात्र प्रमाण सम्राट खारवेल के 'हाथीगुम्फा' (उड़ीसा) शिलालेख में उल्लिखित है, जिसकी दसवी पंक्ति में 'भरधवस' लिखा गया मिलता है। इस तरह मैंने अपने मूल आलेख में सभी लिपियों की जननी ब्राह्मी लिपि की विस्तार से विवेचना प्रस्तुत की है। मेरी यही भावना है कि “जणा-जणा, मणा-मणा, बम्ही बम्हरूपिणा" अर्थात् जन-जन के मन बसे ब्राह्मी का ब्रह्म स्वरूप।
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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