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________________ भगवान् महावीर स्वामी के दिव्यध्वनि से प्राकृत-भाषा में उपदेश किया हुआ श्रुतज्ञान समोवशरण में गौतम गणधर ने द्वादशांग रूप में ग्रहण किया। यही 11 अंग और 14 पूर्व से प्रसिद्ध हुआ है। इसमें धर्म, दर्शन, नैतिक विचार, नानाकला, ज्योतिष, आयुर्वेद और विज्ञान ऐसे अनेक विषयों का समावेश होने से इसको भारतीय ज्ञानकोष ही कहलाता है। दुर्भाग्य से यह सभी सुरक्षित नहीं है। श्रमण-परम्परा श्री गौतम गणधर के बाद उनके शिष्य सुधर्माचार्य और उनके शिष्य जम्बुस्वामी इस प्रकार अनुक्रम से यह श्रुतज्ञान प्राप्त करके 62 वर्षों तक देश में इसका प्रसार-प्रचार किया। यह तीनों केवली प्रसिद्ध और पूज्य हो गये। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी मोक्ष होने के बाद 1. विष्णुनन्दी, 2. नन्दीमित्र, 3. अपराजित, 4. गोवर्धन, 5. भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हो गये। ये द्वादशांग पाठी और श्रुतज्ञान के पारगामी होकर 192 वर्षों तक विहार करते हुए इन्होंने भव्य जीवों के लिए धर्मोपदेश किया। ____ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के पाठी कोई भी नहीं रहे। अनन्तर 1. विशाखाचार्य, 2. गोष्टिलाचार्य, 3. क्षत्रिय, 4. जयसेन, 5. नागसेन, 6. सिद्धार्थ, 7. ध्रुतिसेन, 8. विजय, 9. बुद्धिसेन, 10. गंगदेव, 11. धर्मसेन ऐसे 11 परम निर्ग्रन्थ मुनि ग्यारह पूर्व के धारक थे। इन्होंने अनुक्रम से 183 वर्षों तक यथावत 6 द्रव्य, 7 तत्त्व, 9 पदार्थ और अनेक सिद्धान्तों की प्ररूपणा किया। अनन्तर धर्मसेन के पश्चात 1. नक्षत्र. 2. जयपाल. 3. पाण्ड. 4. ध्रवसेन. 5. कंसाचार्य- ये पांच एक दशांग के ज्ञान के पारगामी हुए। उन्होंने क्रम से 220 वर्ष तक यथावत पदार्थों का प्ररूपणा किया। उनके पश्चात् 1. सुभद्र, 2. यशोभद्र, 3. भद्रबाहु, 4. महायश, 5. लोहाचार्य ये पांच मुनि एक प्रथम अंग के धारक 118 वर्षों तक अनुक्रम से यथावत पदार्थों का प्ररूपणा किया। तदनन्तर 1. विनयधर, 2. श्रीदत्त, 3. शिवदत्त, 4. अरहदत्त- ये चार आचार्यों को अंग पूर्व के कुछ भागों का अध्ययन हुआ था। इस प्रकार श्रुत का ह्रास होता है ऐसा जानकर उसकी रक्षा के लिए चिन्तन करके पाटलिपुत्र में, दूसरे शतक में स्कन्धिल मुनि के सान्निध्य में, मथुरा में क्रि.श. 450 में और वलभी में श्री देवर्धि मुनि के सानिध्य में चर्चा करके संगृहीत हुआ सिद्धान्त को आगम कहने लगे। कलिंग चक्रवर्ती खारवेल के काल में ओरिसा (उड़िसा) राज्य में जैनधर्म राष्ट्रीय धर्म था। वो राजा भी धर्मप्रिय थे। इसलिए भारत में सब यति तपस्वियों को गौरवपूर्वक बुला के जैनधर्म की वाचना एवं सम्मेलन करके जैन श्रुतज्ञान की रक्षा करने के लिए उपाय का चिन्तन करके कार्य रूप में ले आया। यहाँ तक सब आचार्य भगवान् महावीर के मूलसंघ के सदस्य थे। तदनन्तर मुनि संघ में अपने-अपने आचार्यों के अभिप्राय के अनुसार विभाग हो गये। उन्हीं में नन्दीसंघ, देवसंघ, सेनसंघ, भद्रसंघ ऐसे अनेक संघ स्थापित हुए। इन सबकी लम्बी आचार्य परम्परा है। -80
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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