________________ वैराग्य, दीक्षा एवं तप कल्याणक प्रत्येक कार्यसिद्धि के पीछे कोई न कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष निमित्त कारण अवश्य रहता है। प्रभु विमलवाहन हेमन्त ऋतु में वर्फ की धवलशोभा देख रहे थे। उन पर सूर्य-रश्मियां पड़ने से 'सतरंगी वर्णक्रम' आनन्द व आह्लाद उत्पन्न कर रहा था। अचानक वर्फ पिघलने से वह दृश्य विलीन हो गया। इस क्षणभंगुरता ने उनके अन्तर्मन को झकझोर दिया और वे वैराग्य से उद्वेलित हो उठे। चिन्तन करने लगे- ओह! 30 लाख वर्ष राज्य-मोह के व्यामोह में खो दिये। क्या यह चिरस्थायी है? हमारे पूर्वजों ने अविनाशी मोक्ष सुख पाने इन्हें त्यागकर संयम पथ पर चलकर तपस्या की थी। ऐसा वैराग्यपूर्ण चिन्तन चल रहा था कि पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग से सारस्वत आदि लौकान्तिक देव, कम्पिला नगरी में आये और उनके वैराग्यपूर्ण विचारों की अनुमोदना करने लगे। धन्य है प्रभु जिस प्रकार चन्दन वृक्ष की सुगन्ध से समीपस्थ वृक्ष भी सुवासित हो जाते हैं, आपके द्वारा होने वाले मोक्षमार्ग प्रवर्तन से भव्य जीव-मोक्ष सुख प्राप्त करेंगे। प्रभु विमलवाहन ने 'दिगम्बर दीक्षा' लेने का संकल्प लिया। इस दीक्षा महोत्सव को मनाने इन्द्रादि देव 'देवदत्ता' पालकी लेकर उपस्थित हो गये। भगवान् को उस पर आरूढ़ कर सहेतुक वन तपस्या हेतु ले गये जहाँ भगवान् ने दो दिन के उपवास का योग धारण कर माघ शुक्ला चतुर्थी के सायंकाल उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ 'ॐ नम: सिद्धेभ्यः' कहकर दीक्षा ग्रहण की। केवलज्ञान कल्याणक भगवान् विमलनाथ ने दो दिन का योग समाप्त कर तीसरे दिन 'नन्दपुर' पहुँचे जहाँ राजा जयकुमार ने आपको नवधा भक्ति से आहार दिया और आहार के पश्चात् वन की ओर प्रयाण कर पुनः आत्मध्यान में लीन हो गये। इस प्रकार 2-2 दिन के अन्तराल से उपवासपूर्वक आहार लेते हुए 3 वर्ष मौन रहकर तपस्या की। माघ शुक्ला षष्ठी के दिन सन्ध्यावेला में उत्तराभाद्र पद नक्षत्र में चार घातिया कमों का नाश कर केवलज्ञान उपलब्ध किया। उसी समय इन्द्र व देवगण आये उन्होंने अष्ट-प्रातिहार्यों का वैभव प्रगट किया। समवसरण की रचना की। भगवान् विमलनाथ गन्धकुटी में कमलासन से चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान हो गये। उनका परमौदारिक शरीर इतना हल्का हो गया कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से वे परे हो गये। अरिहन्त पद को पा गये और दिव्य ध्वनि से जीवों के कल्याण रूप धर्म का उपदेश दिया। भगवान् वासुपूज्य के तीर्थ के बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गये और पल्य के अन्तिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया था, तब भगवान् विमलनाथ ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया और भरत क्षेत्र में पुनः विदेह क्षेत्र के समान 'धर्मक्षेत्र' का चिन्मय वातावरण बन गया। समवशरण-परिकर भगवान् विमलनाथ की धर्म सभा में मेरु मन्दर आदि५५ गणधर थे। 1100 पूर्वधारी थे। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी व विक्रियाऋद्धि धारी 68000 मुनिराजा समवशरण में थे। पद्मा आदि 103,000 आर्यिकाएं दो लाख श्रावक तथा चार लाख श्राविकाएं थीं। प्रतिमायोग धारण व मोक्षकल्याणक आयु का एक माह शेष रहने पर आपने धर्मदेशना संकोच कर श्री सम्मेद शिखर के शंकुल (सुवीर) कूट - 43