________________ तीर्थङ्कर ऋषभदेव का शिक्षा-दर्शन - डॉ. चन्द्रकान्ता जैन, सागर युगादि शिक्षक तीर्थङ्कर ऋषभदेव का चरित्र एवं व्यक्तित्व दोनों ही लोकातिशयी हैं। उनका जीवनचरित अनेक जैन पुराणों और काव्यों में ग्रन्थित है। वैदिक-साहित्य में भी उनका बहुचर्चित उल्लेख है। इन युगादि पुरुष का मानव जाति के समुनयन में प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने युग के आदि में जनता को एक सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सर्वोपयोगी शिक्षा प्रदान की जो समय की शिला पर आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख एवं अनन्त वीर्य से सम्पन्न है; किन्तु अनादिकाल से वह ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से घिरा (आवृत) होने के कारण उसका उपरोक्त स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता। अर्थात् ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो या आध्यात्मिक, सब मनुष्य के अन्दर है। बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढंका रहता है और जब वह आवरण शक्ति के पुरुषार्थ से धीरे-धीरे हटता जाता है, तो हम कहते है कि 'हम सीख रहे हैं। वास्तव में हम जो कहते हैं कि मनुष्य ‘जानता है' यथार्थ में मानस शास्त्रसंगत भाषा में हमें कहना चाहिए कि वह 'आविष्कार करता है', 'अनावृत' या 'प्रकट' करता है। मनुष्य जो कुछ सीखता है वह वास्तव में आविष्कार करना ही है और आविष्कार का अर्थ है - मनुष्य का अपनी अनन्तज्ञान स्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना। ज्यों-ज्यों इस आविष्कार (अनावरण) की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य का यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है, और जिस पर यह आवरण तह पर तह पड़ा हुआ है, वह अज्ञानी है जिसका यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है। चकमक् पत्थर के टुकड़े में अग्नि के समान ज्ञान, हमारी आत्मा में निहित है और सुझाव या उद्दीपक कारण रूप शिक्षा ही वह घर्षण है जो उस ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति विविध प्रतिभाएं लेकर जन्म लेता है, इनमें से कुछ प्रकट होती है और कुछ प्रसुप्त। शिक्षा प्रकट प्रतिभा को व्यवस्थित एवं विकसित तथा प्रसुप्त प्रतिभा को जागृति प्रदान करती है। ____ अर्थात् मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है और इसके लिए उसे सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय धारण करने की आवश्यकता होती है। इस तरह शिक्षा आजीवन चलने वाली वह प्रक्रिया है, जो व्यक्ति का भावात्मक, ज्ञानात्मक तथा चारित्रात्मक विकास करती हुई कर्मबन्धन (आवरण) से मुक्ति दिलाती है। जैनदर्शन के सम्यक् दर्शन में व्यक्ति का भावात्मक, सम्यक् ज्ञान में ज्ञानात्मक तथा सम्यक् चारित्र में चारित्रिक विकास (क्रियात्मक पक्ष) की बात निहित है। इन तीनों पक्षों के विकास का लक्ष्य व्यक्ति को कर्मबन्धन (आवरण) से मुक्ति दिलाकर मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति कराना है, जो कि व्यक्ति के परम या -17