________________ शासक के रूप में उन्होंने 63 लाख पूर्व वर्षों तक सुराज्य किया था। नीलाञ्जना नामक अप्सरा नर्तकी की अचानक मृत्यु के निमित्त से सांसारिक सुख-भोगादिक को विनाशशील मानकर वे विरक्त हो गये थे। चैत्र कृष्णा नवमी के दिन दिगम्बर रूप जिन दीक्षा लेकर वे मुनि तथा मनःपर्यय उत्पन्न हो जाने से चार ज्ञान के धारक बन गये थे। उन्होंने 6 माह तक लगातार घोर तप किया। इसके पश्चात् भावी मुनियों के लिए आदर्श उपस्थित करते हुए ईर्यापथ से 6 माह तक आहार के लिए विहार करते रहे। हस्तिनापुर के राजा और श्रेयांश कुमार के द्वारा विधिवत् इक्षुरस का आहार पाणिपात्र में लेकर मुनियों के लिए आहार लेने की विधि का प्रवर्तन किया था। इसके पश्चात् उन्होंने एक हजार वर्षों तक कोर तप किया। पुरिमताल नामक गगर के शकट नामक उन में एक वटवृक्ष के नीचे धर्मध्यान और शुक्लध्यान करके उन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया था। फाल्गुन माह की कृष्ण एकादशी और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर वे सर्वज्ञ, केवली, जिन आदि कहलाने लगे। देवों और मनुष्यों ने केवलज्ञान महोत्सव मंगाया। समवशरण के मध्य में स्थित सिंहासन पर विराजमान होकर उन्होंने धर्मोपदेश दिया था। उनकी दिव्यध्वनि को सुनकर अनेक लोग, मुनि-आर्यिका रूप में दीक्षित हुए थे। अनेक लोगों ने श्रावक और श्राविका के व्रत ग्रहण किये थे। जीवादि 7 तत्त्वों, 6 द्रव्यों, मोक्ष और मोक्षमार्ग का उपदेश एक हजार और 14 दिन तक काशी, अवन्ति, कुरु, कौशल, अंग, बंग, कलिंग, आन्ध्र, मद्र, पांचाल, मालव, विदर्भ आदि देशों में देते हुए वे कैलास पर्वत पर पहुँचे। वहाँ पर अघातिया कर्मों का समूल क्षय कर माघ कृष्ण चतुर्दशी को अनेक मुनियों के साथ 84 लाख पूर्व वर्ष की आयु पूरी कर वे मुक्त हो गये थे। उनके मोक्ष की प्राप्ति होने पर मनुष्यों और देवों ने निर्वाण महोत्सव मनाया था। भगवान् ऋषभदेव का तीर्थ 50 लाख करोड़ वर्षों तक मनुष्यों के लिए प्रकाशस्तम्भ रहा। उनका विशाल संघ चार भागों में विभाजित था। उस संघ में 84 गणधर, 4750 पूर्वधर, 4750 श्रुतधारी शिक्षक, 9 अवधिज्ञानी मुनि, 20 हजार केवलज्ञानी, 2600 विक्रियाधारी, 20750 विपुलमती और 20750 असंख्यात गुणों के धारक मुनि थे। दूसरा संघ आर्यिकाओं का था जिसमें 50 हजार आर्यिकायें थे। तीसरा संघ श्रावकों का था, जिसमें 3 लाख श्रावक थे और चौथा संघ 50 लाख श्राविकाओं का था। ___ इस प्रकार सिद्ध है कि तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने मानव के कल्याणार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप अनेक सूत्रों का आविष्कार किया था। आध्यात्मिक उपदेश देकर मनुष्यों को जीने और मृत्यु महोत्सव की कला सिखलायी थी जो आज भी प्रासंगिक है। अत: उनके चरणों में मैं नतमस्तक हूँ। -16