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________________ तीर्थङ्कर ऋषभदेव का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व - प्रो. लालचन्द जैन, भुवनेश्वर तीर्थङ्कर ऋषभदेव जैनधर्म-संस्कृति के आ / उन्नायक महापुरुष हैं। संसार में सर्वोत्तम जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर के रूप में अर्चनीय, वन्दनीय और स्तवनीय तीर्थङ्कर ऋषभदेव का बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्व अद्भुत और अपूर्व है। वे इस युग के युगपुरुष के रूप में विश्रुत हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव किसी समाज, देश एवं काल विशेष तक सीमित नहीं थे। वे श्रमण और श्रमणेतरों के परम पूज्य एवं विश्व वन्दनीय थे। यही कारण है कि उक्त दोनों संस्कृतियों में मान्य अलग-अलग भारतीय दर्पणरूपी साहित्य में उनका अनोखा जीवन प्रतिबिम्बित हो रहा है। आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण, पुनाट संघी आचार्य जिनसेनकृत 'हरिवंशपुराण', आ. रविषेणकृत 'पद्मपुराण', आचार्य यतिवृषभकृत 'तिलोयपण्णत्ति' और आ. हेमचन्द्रकृत 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित' प्रमुख और ‘मार्कण्डेयपुराण', 'कूर्मपुराण', 'अग्निपुराण', 'वायुपुराण', 'लिंगपुराण', विष्णुपुराण', 'वराहपुराण', 'ब्रह्माण्डपुराण', 'स्कन्धपुराण', 'श्रीमत् भागवतपुराण' और 'यजुवेंद' में उनका विस्तृत विवरण उपलब्ध होने से सिद्ध है कि वे सर्वमान्य और सर्वपूज्य थे। उनके धर्मोपदेश विश्वव्यापी थे। तीर्थङ्कर ऋषभदेव १४वें कुलकर और अयोध्या के राजा नाभिराय तथा रानी मरुदेवी के नन्दन तथा युगपुरुष थे। सुषमा-दुषमा नामक काल के 84 लाख पूर्व तीन वर्ष और आठ माह शेष रहने पर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में उनका गर्भावतरण हुआ था। देवों ने आकर गर्भावतरण महोत्सव मनाया था। 18 कोड़ाकोड़ी सागर काल के अन्तराल के पश्चात् स्वर्ग और मोक्ष के सुखों के प्रदायक चारित्र रूप धर्म के उपदेश देने वाले तथा वृषभदेव, वृषभस्वामी, ऋषभनाथ, पुरुदेव, पुराणपुरुष, विधाता, विश्वकर्मा, सृष्टा, गौतम. काश्यप, मन, आदिनाथ के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने चैत्र कृष्णा नवमी को जन्म लेकर कमारावस्था के 20 लाख पूर्व वर्ष व्यतीत किये। तत्पश्चात् यशस्वती और सुनन्दा के साथ उनका विवाह हुआ था। उनके प्रथम चक्रवर्ती भरत आदि 100 पुत्र और दो पुत्रियाँ ब्राह्मी एवं सुन्दरी थी। ब्राह्मी को अक्षर वाली रूप लिपि में और सुन्दरी को गणित वि की शिक्षा देकर उन्हें पारङ्गत किया था। शेष पुत्रों को भी शिक्षा देकर कुशल शिक्षक के रूप में वे प्रसिद्ध हुए। , वे केवल विचक्षण गुरु ही नहीं थे, बल्कि व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, अलङ्कार संग्रह, अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, चित्रकलाशास्त्र, विश्वकर्म, वास्तुशास्त्र आदि के प्रणेता भी थे। भोगभूमि और कल्पवृक्ष के समाप्त होने पर भगवान् ऋषभदेव ने कर्मभूमि की सृष्टि की थी। उन्होंने असि, मषि, कृषि, वि II, वाणिज्य और शिल्प रूप छहकर्मों के द्वारा जीविकोपार्जन करने का उपाय जनता को बतला कर कर्मभूमि का प्रारम्भ किया था। स्वस्थ समाज की संरचना के उद्देश्य से उन्होनें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रूप तीन वर्गों की स्थापना कर्म के अनुसार की थी। उनके अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने विवाह के नियम, न्याय-व्यवस्था और दण्ड-व्यवस्था का निर्माण किया था। -15
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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