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________________ तीर्थङ्कर ऋषभदेव और उनका युग __ - डॉ. अशोककुमार जैन, लाडनूं भगवान् ऋषभदेव विश्व संस्कृति के आदिपुरुष हैं। श्रमण और वैदिक-परम्परा में ही नहीं विश्व की अन्य संस्कृतियों में भी उनकी यशोगाथा वर्णित है। जैन वाङ्मय में वे आद्य तीर्थङ्कर के रूप में उपास्य रहे हैं तो वैदिक-साहित्य में उनके विविध रूप प्राप्त होते हैं। बौद्ध-साहित्य में भी उनका ज्योतिर्धर व्यक्तित्व के रूप में उल्लेख है। __ ऋषभदेव के हिरण्यगर्भ, स्वयम्भू, विधाता, प्रजापति, इक्ष्वाकु, पुरुदेव, केशी, वृषभदेव, आदिनाथ इत्यादि नाम पाये जाते हैं। ऋग्वेद में ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाशक कहा है। ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे, जिन्होंने सर्वप्रथम मर्त्यदशा में अमरत्व की उपलब्धि की थी। श्रीमद्भागवत में बाईस अवतारों में आठवें अवतार के रूप में वर्णन करते हुए लिखा है अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरूक्रमः। दर्शयन् वर्त्म धीराणां, सर्वाश्रम नमस्कृतम्।। - (श्रीमद्भागवत, 1.3.13) अर्थात् आठवीं बार नाभिराजा की मरुदेवी नामक पत्नी के गर्भ से ऋषभ ने अवतार ग्रहण किया और सभी आश्रम जिसे नमस्कार करते हैं, ऐसे परमहंस धर्म का उन्होंने उपदेश दिया। स्मृति, पुराणों एवं बौद्ध-साहित्य में ऋषभदेव का वर्णन है। जैन-परम्परा में वे वर्तमान अवसर्पिणी कालचक्र में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर हैं। उन्होंने ही सर्वप्रथम पारिवारिक प्रथा, समाजव्यवस्था, शासन-पद्धति, समाज नीति और राजनीति की स्थापना की और मानव जाति को एक नया प्रकाश दिया। - वे कर्मभूमि के आद्य विधाता के रूप में विश्रुत हैं। उन्होंने असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प निर्धारण किया। विवाह-प्रथा का प्रचलन कर मर्यादित समाज-व्यवस्था का सूत्रपात किया। शासन के रूप में प्रजा का सन्ततिवत् परिपालन किया तथा मात्स्य न्याय प्रचलित न हो, इस हेतु शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ किया। इस हेतु उन्होंने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ नामक क्षत्रियों को महामाण्डलिक राजा बनाया। इनके अधीन चार हजार राजा नियुक्त किये। ऋषभदेव ने हरि से हरिवंश, अकम्पन से नाथवंश, काश्यप से उग्रवंश और सोमप्रभ से सोमवंश तथा कुरुवंश की स्थापना की। तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं के साथ मानव पर्याय को सार्थक बनाने की दिशा में वैराग्य पथ की ओर प्रस्थान कर भोग से योगमार्ग की प्रवृत्ति का सूत्रपात किया। दान की विधि द्वारा श्रमण और श्रावकों में पारस्परिकता के सम्बन्ध की स्थापना में प्रबल निमित्त बने। साधना से आत्मज्ञान तथा आत्मज्ञान से परमात्मा बनने का मार्ग स्वयं तथा जन-जन को प्रशस्त कराया। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अर्हन्त -13
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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