________________ चौबीस तीर्थङ्करों के केवलज्ञान प्राप्ति वाले वृक्ष और उनका वैशिष्ट्य - डॉ. राकेश कुमार गोयल, बोधगया सारांशिका- संकलित प्रस्तुत लेख में अनादिकाल से या वैदिक युग (5000 बी.सी.) से ही वर्तमान 24 तीर्थङ्करों के केवली वृक्ष एवं चिह्नों से पता चलता है कि भारतभूमि की प्राकृतिक सम्पदा स्थानिक (हास्म) है, जो प्राणी जगत् के स्वास्थ्य एवं आर्थिक दृष्टि से भगवान् ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर के काल से वर्तमान एवं भविष्य तक लाभ होता रहेगा। हमारी संस्कृति प्रकृति (जीव-निर्जीव) का मान करती है। इसलिए हमारे देश में पारसनाथ, गिरनार, नन्दा देवी, वैष्णो देवी जैसे मनोरम पर्वतीय क्षेत्र गंगा, यमुना, नर्मदा, ऋजुबला, कृष्णा आदि अन्य नदियों तथा वन्य वृक्षों जैसे वट, पीपल, शाल, चम्पा, कदम्ब, चन्दन आदि पौधों के साथ-साथ सभी जीव-जन्तुओं एवं पशु-पक्षियों को पवित्र एवं पूज्य माना जाता है। ऋषियों की तपोभूमि एवं मन्दिरों के निकट के वन एवं पशु-पक्षी भी आश्रमों की भाँति सुरक्षित बच सके। प्रकृति के प्रति मान-सम्मान एवं आस्थाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि अनेक पर्वतों, नदियों, वन वृक्षों तथा वन्य-प्राणियों, जानवरों को आस्था और विश्वास ने बचाया है। अदृश्य रूप से स्वस्थ मानव कल्याण की भावनाओं को दर्शाता है। जिन वनों में ऋषि-मुनियों के आश्रम होते थे अथवा आज जहाँ भी कोई साधु-महन्त जिस वृक्ष के नीचे या वन में ध्यान मग्न होते हैं या आश्रम बना लेते हैं वहाँ एक ओर तो प्राकृतिक वनस्पतियों को कम क्षति पहुँचाती थी, दूसरी ओर नानाप्रकार के औषधीय पेड़-पौधे तथा वन्य प्राणियों को स्वतन्त्र विचरण को संरक्षित निर्भयता देकर शोभा बढ़ाते हैं। भारत के अनेक प्रान्तों में पवित्र वनों के नाम से आज भी अनेक सुन्दर वन बचे हुए हैं जिनके विभिन्न नाम हैं- जैसे पारसनाथ का मधुवन, गुजरात का गिर फारेस्ट, बंगाल का सुन्दर वन, राजगृह का आम्रकुञ्ज, वेणुवन इत्यादि इन पवित्र वनों के प्रति स्थानीय जन-जातियों एवं ग्रामीणों की आस्था बहुत ही प्रबल हैं। इन वनों से सूखी लकड़ी निकालना या मिट्टी खोदना तक वर्जित है एवं वर्षा ऋतु में जंगलों में घूमने से मना करना, क्योंकि नव अंकुरित पौधों को नष्ट होने से बचाना है तथा ऐसा करने से देवी-देवताओं का प्रकोप झेलना पड़ सकता है। अत: आज तक इन आस्थाओं से छोटे-छोटे अनेक वन क्षेत्रों एवं वृक्षों तथा वन्य प्राणियों की रक्षा हो सकती है अन्यथा बड़, पीपल आदि विशाल उपयोगी वृक्ष कभी के हाथियों को खिलाकर नष्ट कर दिये जाते। सर्वप्रथम 1970 में भारतीय सर्वेक्षण तथा वन अनसन्धानशाला ने मिलकर 100 विरले पौधों की एक सूची बनायी जिसमें चौबीस तीर्थङ्करों के केवली वृक्षों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पाये गये (ऊत 1) / 1980 में 134 वृक्षों एवं पौधों पर S.K.Jain (Ex. Director, Botanical Survey of India, Kolkata) एवं Arjul Shastri ने एक सचित्र पुस्तक भी प्रकाशित की। तदुपरान्त जैन एवं उनके सहकर्मियों की लिखी कई पुस्तकों एवं शोध-पत्रों का प्रकाशन हुआ जिनमें संकटग्रस्त पौधों की सूचियाँ सचित्र एवं संरक्षण की स्थिति का विवरण है। -11