________________ समुदाय पहले “जनसंख्या ठहराव" के दौर से गुजरेगा और बाद में “जनसंख्या ह्रास' के दौर से। भारत में जैनों की जनसंख्या जहाँ एक ओर धीमी गति से बढ़ रही है वहीं उत्प्रवास के कारण विदेशों में उनकी संख्या काफी बढ़ रही है। आज अनुमानत: लगभग 2 लाख जैन विदेशों में प्रवास कर रहे हैं। यों तो अल्पसंख्या में जैन व्यापारी प्राचीनकाल से ही विदेशों में जाते और वहाँ बसते रहे हैं, मगर १९वीं शताब्दी के अन्त से इस प्रक्रिया में काफी बढ़त हुई है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक बड़ी संख्या में जैनों का उत्प्रवास हुआ। इस उत्प्रवास के दौरान एक ओर जैन जहाँ पूर्वी अफ्रीकी देशों जैसे- केन्या, उगाण्डा, तंजानिया, सूडान, इथियोपिया, जांमविया आदि में गये हैं, वहीं दूसरी ओर वे अमरीका, केनेडा, ब्रिटेन, वैलजियम, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि देशों में भी बस गये हैं। पिछले तीन दशकों से ईरान की खाड़ी के देशों में भी आ-जा रहे हैं। केन्या, इंग्लैण्ड, अमरीका और केनेडा में तो जैन मन्दिरों का निर्माण भी हो चुका है। प्राय: सभी देशों में दर्जनों की संख्या में जैन सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन हैं जो जैनधर्म के सिद्धान्तों और विशेष रूप से शाकाहार के प्रचार-प्रसार में कार्यरत है। हालांकि जैनधर्म और जैन-दर्शन-सम्बन्धी विविध विषयों पर अनेक प्रकार के अध्ययन हुए हैं और हो रहे हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जैन समुदाय के विभिन्न पक्षों पर बहुत ही कम अध्ययन हुए हैं। यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्रथम समाजशास्त्रीय अध्ययन का श्रेय जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर को जाता है जिन्होंने रिलीजन ऑफ इण्डिया नामक अपनी पुस्तक के एक आधे अध्याय में जैनधर्म और समुदाय की सारगर्भित व्याख्या की है। यह पुस्तक 1950 के दशक में अंग्रेजी में अनुवादित हुई थी। इन्हीं दिनों एक भारतीय समाजशास्त्री प्रोफेसर विलास आदिनाथ संगवे की महत्त्वपूर्ण पुस्तक “जैन समुदाय : एक सामाजिक सर्वेक्षण' प्रकाश में आयी। 1971 में बलवन्त नेवासकर ने जैनों और क्वेकरों का एक तुलनात्मक अध्ययन किया। एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् 1988-89 से ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और हारवर्ड विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध अनेक विद्वान् जैन समुदाय और धर्म का नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन कर रहे हैं जिनमें पॉल डुंडास, फोकर्ट, जॉन कोर्ट, कैरोलाइनहम्फ्री, जेम्स लेडलॉ, माइकेल कैरिथर, मार्कुस बैंक्स, प्रो० पद्मनाभ जैनी आदि उल्लेखनीय हैं। सम्भवतः इन्हीं की प्रेरणास्वरूप कुछ भारतीय समाजशास्त्री जैसे नरेन्द्र सिंघी, मुकुन्द लाठ, रवीन्द्र जैन, रानू जैन और इन पंक्तियों का लेखक (प्रो० प्रकाशचन्द जैन) भी इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। फिर भी यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जैन समुदाय भारत का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सबसे कम अनुसन्धानित समुदाय है। कहना नहीं होगा कि जैन समुदाय के विभिन्न पक्षों के समाजशास्त्रीय अध्ययनों की महती आवश्यकता है तभी हमें जैन समुदाय में होने वाले महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की जानकारी होगी। - 1V6 -